छावा से जो राष्ट्र-चिति समृद्ध हुई है तो कई हलकों में चिन्ता है। इसलिए पुनः वही घिसा पिटा फूट डालने का फ़ार्मूला चल रहा है। अब राजपूतों और मराठों को एक दूसरे के सामने किया जा रहा है।

पर मुझे तो ये दोनों ही सामवेद की उस शौर्याराधना की याद दिलाते हैं- एवा ह्यसि वीरयुरेवा शूर उतस्थिर: । एवा ते राध्यं मन:।
राजपूती शौर्य को समझना है तो डिंगल साहित्य पढ़ना होगा। सूरजमल का दोहा
ओर मुवा सुण औहड़े, बरखां पाँच विचाल ।
घर में मायड़ घातियो, बरकै पूंचां बाल ।।
दूसरों की मृत्यु की सूचना पाकर माँ ने अपने एक पंचवर्षीय बालक को युद्ध में जाने से रोक दिया। इस पर उसने अपने दाँतों से पहुँचो को काट-काट कर घर पर ही आत्महत्या कर ली ।
माल कवि कहते थे :
जिव जाये तो जाण दें, जस जाये डरिये ।
माल कहै, क्यूं भज्जियें, भी भग्गाँ मरियै ॥
यदि प्राण जाते हैं तो जाने दो। यश जाता हो तो डरना चाहिए। माल कवि कहता है कि युद्ध से क्यों भागा जाय ? भागने पर भी तो मरना निश्चित है।
तब मुझे पानीपत युद्धभूमि में मरणोन्मुख मराठा सेनापति दत्ताजी शिंदे का क़ुतुबशाह को दिया गया जवाब याद आता है –
यानें जावसाल केला की, पटेल, हमारे साथ तुम और लड़ेंगे ? म्हणोन दम बांधोन जावसाल केला कीं, “निशा अकताला ! बचेंगे तो और भी लड़ेंगे।”
कुतुबशाह ने दत्ताजी शिंदे से व्यंग्यपूर्वक कहा -“पटेल, क्या तुम हमारे साथ फिर लड़ोगे ?” मरणोन्मुख शिदे ने उत्तर दिया – हाँ, यदि बचे रहे तो और भी लड़ेंगे।’
यह जनवरी 1760 की बात है। इस बात को सुनकर वह राजस्थानी दोहा याद आ ही जाता है :
मरदां मरण हक्क है, ऊबरसी गल्लांह।
सापुरसां-रा जीवणा थोड़ा ही भल्लाह ॥
वीरों के लिए मरना उचित है। उनकी बातें उनके पीछे रह जाएंगी। सच्चे पुरुषों का जीवन थोड़ा हो तो भी अच्छा।
महाराष्ट्र में पेशवा काल में एक राजाज्ञा चलती थी जो इस प्रकार थी :
अपणांस राखून गनीम ध्यावा स्थलास मनिमांचा बेढ़ा पडला तो रोज सूंजून स्थल जतन करावें, निदान येऊन पडलें तरी परिच्छिन्न वार होऊन लोकों मरावें, पण सल्ला देऊन, स्थल देऊन, जीव वाचविला असे सर्वथा न धड़ावें ।
कि यदि शत्रु द्वारा हमारे देश पर आक्रमण किया जाए तो हमें अहर्निश अपने आपको सुरक्षित रखकर उससे लोहा लेना चाहिए । यदि विपत्ति शीश पर ही मंडराने लगे तो कदापि अपना पग पीछे न धरना चाहिए, अपितु युद्ध करते- करते अपने प्राण विजित कर देने चाहिए जिससे बाद में विश्व को यह कहने का साहस न हो सके कि हमने अपने देश के सम्मान की बलि चढ़ाकर अपने प्राण बचाये हैं।
और राजपूतों का सिद्धान्त भी यही था :
नह मूंघा धन-धान-सूं, नह मूंघा घर हूंत ।
सूंघा मरही देस हित, बै मूंघा रजपूत ॥
अधिक धन-संपत्ति या ऊँचे महलों के द्वारा राजपूत मूल्यवान (महत्त्वशाली) नहीं होते और न जमीन के द्वारा मूल्यवान होते हैं। प्राणों को सस्ता समझकर जो देश के लिए मरते हैं, वे ही राजपूत मूल्यवान होते हैं ।
झालर वाज्याँ भगतजन, बंब वज्याँ रजपूत ।
एतां ऊपर ना उटै, आडूं गांठ कपूत ॥
मंदिर में घंटे- घड़ियाल की आवाज सुनते ही भक्त उठ खड़ा होगा। रणभेरी की आवाज सुनते ही राजपूत कट मरने को उद्यत हो जायगा। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें सच्चा भक्त और राजपूत समझना ही नहीं चाहिए।
मराठी आदर्श यह था कि :
हैं नारीब आमुचें- म्हणुनी न वा वीरांच्या वदति न वाचा ।
ते स्वतांच्याच रुधिरानें लिहिति लेख निज नाशि वाचा ।
स्वातंत्र्यसाधनों देती मोबदला ते जीवाचा ॥
जो वीर होते हैं वे कभी यह नहीं कहते कि हमारे भाग्य में ऐसा ही लिखा था । वे अपने ही रक्त से अपने भाग्य का लेख लिखा करते हैं और स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाते हैं ।
उधर राजस्थानी आन यों थी :
जलम दिखायो जलम-दिन, परण दिखायो आज ।
बेटा ! हरख दिखावजे मरण देस-रै काज ॥
कि हे बेटा ! जन्म लेकर तुमने जन्मोत्सव का दिन दिखाया । विवाह करके आज विवाहोत्सव का दिन दिखाया। हे पुत्र ! देश के लिए मर कर मरणोत्सव का दिन भी दिखाना।
इला न देणी आपणी, रण-खेतां भिड़ जाय ।
पूत सिखावै पालण मरण-बड़ाई माय ॥
अपनी भूमि को किसी को न देना, उसके लिए रण-भूमि में भिड़ जाना। माता इस प्रकार पुत्र को झूले में झुलाते समय ही मरने की महिमा सिखाती है।
ये भाव डिंगल से ही आते, अंग्रेजी से नहीं। उनकी मांओं तक के मानक कितने विलक्षण थे:
सुत ! करजे हित देस-रो, झड़जे खागां-हूत ।
बूढापा-री चाकरी जद भर पाऊं पूत ॥
हे पुत्र ! देश का हित करना, तलवारों से कटकर गिर जाना । बेटा ! ऐसा करोगे तभी मैं बुढ़ापे की सेवा पाऊंगी (तभी समझूँगी कि तुमने बुढ़ापे में मेरी सेवा की) ।
क्या युग था जब अपने बुढ़ापे की चिन्ता का यह रूप हुआ करता था। देशहित।
और भाई लोग हमें सिखाते रहे कि भारतीयों में देश-भावना अंग्रेज़ी से आई।
भारत के कोने कोने में वीरता की यह परंपरा रही। एक ही आदर्श से प्रेरित। लेकिन पाठ्यक्रम को आपसी लड़ाइयों को दिखाने में ही व्यस्त होना था। या शौर्य की ऊष्मा पर पानी डालने के लिये दूसरी विधियों का महिमामंडन करना था।
Author: SPP BHARAT NEWS






