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सनातन धर्म: जिज्ञासाओं का आध्यात्मिक समाधान

सनातन धर्म: जिज्ञासाओं का आध्यात्मिक समाधान

भारतवर्ष, एक ऐसी भूमि जिसने सभ्यता के उषाकाल से ही ज्ञान और आध्यात्मिकता की धारा प्रवाहित की है। इस पुण्य भूमि की पहचान इसके प्राचीन और जीवंत धर्म – सनातन धर्म – से है। यह धर्म, जिसे हिन्दू धर्म के नाम से भी जाना जाता है, केवल पूजा-पद्धतियों और कर्मकांडों का समुच्चय नहीं है, बल्कि यह जीवन के शाश्वत सत्य, मानव अस्तित्व के उद्देश्य और ब्रह्मांडीय व्यवस्था की गहरी समझ पर आधारित है। आज, हम सनातन धर्म के कुछ मूलभूत प्रश्नों पर विचार करेंगे, जिनका उद्देश्य जिज्ञासु हृदयों को शांति और ज्ञान की ओर ले जाना है।
प्रश्न 1: सनातन धर्म क्या है? क्या यह मात्र एक भौगोलिक पहचान है?
उत्तर: सनातन धर्म, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, वह धर्म है जो शाश्वत है, अनादि है और जिसका कभी अंत नहीं होता। यह केवल कुछ विशिष्ट नियमों या सिद्धांतों का पालन करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक जीवन जीने की कला है, एक ब्रह्मांडीय सत्य को अनुभव करने का मार्ग है। हमारे प्राचीन ग्रंथ, जैसे कि श्रीमद्भागवत, न केवल इस धर्म के आचार-विचारों का प्रतिपादन करते हैं, बल्कि भारतवर्ष की भौगोलिक सीमा – समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का भूभाग – और इसके ‘भारत’ नाम की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्ता को भी स्थापित करते हैं। इसलिए, सनातन धर्म केवल एक भौगोलिक पहचान नहीं है, बल्कि यह इस भूमि पर विकसित हुई एक विशिष्ट आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा है जो शाश्वत मूल्यों पर आधारित है।
प्रश्न 2: सनातन धर्म के उपास्य देव कौन हैं? क्या यह बहुदेववादी धर्म है?
उत्तर: सनातन धर्म की उपासना पद्धति की गहराई को समझना आवश्यक है। मूल रूप से, सनातन धर्म निर्विशेष आत्मा – उस परम चेतना – को अपना उपास्य मानता है, जो सभी में व्याप्त है। श्रुति वाक्य “आत्मा वारे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:” (आत्मा ही देखने योग्य है, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य है और ध्यान करने योग्य है) इसी सत्य को उद्घाटित करता है।
हालांकि, सामान्य मनुष्य के लिए इस निराकार, निर्गुण आत्मा की उपासना अत्यंत कठिन है, जैसा कि भगवत गीता में भी कहा गया है – “क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्” (अव्यक्त में आसक्त चित्त वालों को अधिक क्लेश होता है)। इसी कारण, श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों में उसी निर्विशेष आत्मा के सगुण रूपों – जैसे राम, कृष्ण, शिव, देवी आदि – की उपासना का विधान किया गया है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे व्यापक ब्रह्म, जो निराकार और निर्गुण है, भक्तों के प्रेमवश विभिन्न सगुण रूपों में प्रकट होता है, जैसा कि तुलसीदास जी कहते हैं – “व्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुण विगत विनोद। सोई अज भक्तिप्रेमवश कौसल्या की गोद।।”
यद्यपि आत्मा सर्वत्र व्याप्त है (“आत्मैवेदं सर्वम्”), फिर भी उसकी उपासना हर जगह समान रूप से नहीं की जाती। जहाँ उसकी शक्ति या अभिव्यक्ति अधिक होती है, वह स्थान या रूप अधिक उपास्य होता है। शरीर में आत्मा व्याप्त होने पर भी हम शरीर के सभी अंगों की समान रूप से उपासना नहीं करते। इसी प्रकार, किस रूप में और कैसे आत्मा की उपासना करनी है, इसका निर्णय हमारे प्रामाणिक ग्रंथ ही करते हैं। इसलिए, सनातन धर्म मूलतः एकेश्वरवादी है, जो एक ही परम तत्व को विभिन्न रूपों और नामों से पूजता है।
प्रश्न 3: सनातन धर्म में सम्प्रदाय का क्या अर्थ है? क्या यह विभाजनकारी है?
उत्तर: सनातन धर्म में ‘सम्प्रदाय’ का अर्थ है गुरु-शिष्य परम्परा से प्राप्त अविच्छिन्न ज्ञान की धारा। यह वह ज्ञान है जो गुरु ने अपने गुरु से और उन्होंने अपने गुरु से यथाविधि प्राप्त किया है। “दीयते इति दाय:” – जो दिया जाता है, वह दाय है। जिस प्रकार पिता अपने पूर्वजों से प्राप्त धन आदि पुत्र को देता है, उसी प्रकार गुरु अपने पूर्ववर्ती आचार्यों से प्राप्त विद्या को अपने शिष्य को प्रदान करता है। यह अविच्छिन्न परम्परा वेदाध्ययन और तदनुसारी शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में ही निहित है।
इसलिए, सम्प्रदाय विभाजनकारी नहीं हैं, बल्कि वे ज्ञान की जीवंत धाराओं के समान हैं जो एक ही मूल स्रोत – वेद और शास्त्र – से प्रवाहित होती हैं। यदि विभिन्न सम्प्रदाय व्यवहार में मन्वादि धर्मशास्त्रों को प्रमाण मानते हैं और यथाशक्ति उनका पालन करते हैं, तो वे सभी सनातन धर्म के मूल सम्प्रदाय कहे जा सकते हैं। यह विविधता सनातन धर्म की उदारता और समावेशी प्रकृति को दर्शाती है, जहाँ विभिन्न मार्गों से एक ही परम लक्ष्य की ओर बढ़ा जा सकता है।
प्रश्न 4: उपासना का महत्व क्या है? क्या यह केवल कर्मकांड है?
उत्तर: उपासना, जैसा कि आगम और तन्त्रशास्त्रों में वर्णित है, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है। मनुस्मृति कहती है – “महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनु:” (महायज्ञों और यज्ञों से यह शरीर ब्रह्ममय होता है)। श्रुति भी कहती है – “तमेतं लक्षणं विविदिषन्ति ब्राह्मणा यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन” (ब्राह्मण उस लक्षण को यज्ञ, दान, तप और अनाशक से जानने की इच्छा करते हैं)। यहाँ यज्ञ, पूजा और उपासना को आत्मज्ञान और ब्रह्म प्राप्ति के साधन के रूप में देखा गया है।
उपासना केवल बाह्य कर्मकांडों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक आंतरिक प्रक्रिया है जो भक्त को अपने आराध्य के साथ एक गहरा संबंध स्थापित करने में मदद करती है। यह प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का एक माध्यम है जिसके द्वारा साधक अपने मन को शुद्ध करता है और आध्यात्मिक प्रगति करता है। उपासना के विभिन्न रूप – जैसे जप, ध्यान, कीर्तन, अर्चना – साधक की प्रकृति और रुचि के अनुसार चुने जाते हैं, जिसका उद्देश्य अंततः चित्त की शुद्धि और परमात्मा से एकाकार होना है।
प्रश्न 5: सनातन धर्म में नारायण कौन हैं? क्या वे केवल एक देवता हैं?
उत्तर: सनातन धर्म में नारायण केवल एक देवता नहीं हैं, बल्कि वे स्वयं परम परमात्मा हैं। “न रीयते अर्थात् न क्षीयते इति नर:परमात्मा, तस्य इदं नारं जगत्। तद् एति जानाति इति नारायण:” – नारायण वह अविनाशी परमात्मा हैं जिनसे यह संपूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है और जो इस जगत को जानते हैं। वे दृग्रूप साक्षी हैं, जो प्रत्येक जीव की आत्मा से अभिन्न हैं। श्रुति कहती है – “नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा” (इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है)। इसलिए, जो द्रष्टा है, वही नारायण है।
द्रष्टा दृश्य से पृथक् होते हुए भी, दृश्य द्रष्टा से पृथक् नहीं है – यह अद्वैत वेदांत का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसे श्रीमद्भागवत में शुकदेव जी भी कहते हैं – “न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मन:” (तुम शरीर और विश्व को आत्मा से अलग नहीं देखोगे)। जो जगत को अपने से अभिन्न जानता है, वही नारायण है। इस प्रकार, नारायण केवल एक विशिष्ट देवता नहीं, बल्कि उस सर्वव्यापी चेतना का नाम है जो इस ब्रह्मांड का आधार है।
प्रश्न 6: सनातन धर्म में कृष्ण कौन हैं? क्या वे केवल एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं?
उत्तर: श्रीमद्भागवत स्पष्ट रूप से कहता है – “कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्” (कृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं)। अब यह भगवान् कौन है, इसे भी भागवत ही बताता है – “कृष्णमेनमवेहि त्वमात्मानं सर्वदेहिनाम्” (तुम इस कृष्ण को सभी देहधारियों की आत्मा जानो)। गीता में भी कहा गया है – “वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:” (वासुदेव ही सब कुछ हैं, ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ है)। यहाँ ‘सर्वम्’ उद्देश्य है और ‘वासुदेव:’ विधेय, जिसका अर्थ है कि सब कुछ वासुदेव (कृष्ण) ही हैं।
कार्य-कारण के सिद्धांत से इसे समझें – घड़े को मिट्टी कहा जाता है, मिट्टी को घड़ा नहीं। इसी प्रकार, कृष्ण सबके कारण हैं और सब कुछ उनका कार्य है, इसलिए सब कुछ कृष्ण में स्थित है, पर कृष्ण सब कुछ नहीं हैं। यदि कोई पूछे कि कृष्ण कौन हैं, तो यह प्रश्न वैसा ही है जैसे कोई पूछे कि मिट्टी कौन है – यह सामान्य विषयक प्रश्न होने के कारण असंगत है। प्रश्न हमेशा विशेष विषयक होता है। इसलिए, कृष्ण केवल एक ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, बल्कि स्वयं परम भगवान् हैं, जो सभी के आत्मास्वरूप हैं और सब कुछ के कारण हैं।
प्रश्न 7: स्वयं को और सभी को कृष्ण रूप में देखना – क्या यह अहंकार है या आध्यात्मिक উপলব্ধি?
उत्तर: यदि कोई व्यक्ति स्वयं को और सभी को कृष्ण (परम तत्व) के रूप में देखता है, तो यह अहंकार नहीं, बल्कि एक उच्च आध्यात्मिक উপলব্ধি है। यह उस अद्वैत भावना की अभिव्यक्ति है जिसे “सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत” (यह सब ब्रह्म ही है, उससे उत्पन्न हुआ है, उसी में लीन होता है, इसलिए शांत होकर उसकी उपासना करो) जैसे श्रुति वाक्यों में बताया गया है।
हालांकि, यदि कोई व्यक्ति केवल स्वयं को या किसी एक को ही कृष्ण मानता है और दूसरों को अपने से भिन्न समझता है, तो यह निश्चित रूप से अहंकार और अज्ञानता है। सनातन धर्म का सार एकता और समदृष्टि में निहित है। जब साधक यह अनुभव करता है कि सभी जीव उसी परम चेतना के अंश हैं और सब कुछ उसी एक तत्व से व्याप्त है, तो वह भेद-भाव से मुक्त हो जाता है और सच्ची आध्यात्मिक शांति को प्राप्त करता है।

सनातन धर्म एक विशाल और गहरा आध्यात्मिक सागर है, जिसमें जिज्ञासाओं के अनगिनत प्रश्नों के उत्तर निहित हैं। यह केवल एक धर्म नहीं, बल्कि एक शाश्वत जीवन दर्शन है जो हमें अपने अस्तित्व के मूल उद्देश्य, ब्रह्मांडीय व्यवस्था और परम सत्य की ओर ले जाता है। इस प्रश्नोत्तरी के माध्यम से, हमने कुछ मूलभूत जिज्ञासाओं को शांत करने का प्रयास किया है, लेकिन सत्य की यात्रा अनंत है। यह हमारी अपनी खोज, मनन और अनुभव के माध्यम से ही पूर्ण होती है। आशा है कि यह लेख जिज्ञासु हृदयों को ज्ञान और शांति की दिशा में एक कदम आगे बढ़ने में सहायक होगा।

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Author: SPP BHARAT NEWS

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