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भक्ति मार्ग में तत्त्वज्ञान की अनिवार्यता: एक शास्त्रीय विवेचन

भक्ति मार्ग में तत्त्वज्ञान की अनिवार्यता: एक शास्त्रीय विवेचन

भारतीय दर्शन के महानतम मार्गों में से एक है भक्ति मार्ग, जिसे सरल, सहज, और सर्वग्राह्य माना गया है। किंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या केवल भावना मात्र, प्रेम मात्र, श्रद्धा मात्र से भगवत्प्राप्ति संभव है, या क्या इसके मूल में कोई गूढ़ तात्त्विक अधिष्ठान आवश्यक है? शास्त्र, उपनिषद, महापुरुषों के वचनों एवं संत वाणी के आलोक में जब इस प्रश्न का विवेचन करते हैं, तो उत्तर अत्यंत सूक्ष्म और विवेचनीय रूप में हमारे सम्मुख आता है।

1. शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में तत्त्वज्ञान की महत्ता

भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

“श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥” (गीता 4.39)

यहाँ स्पष्ट है कि श्रद्धा, संयम और तत्परता—ये तीन आधार हैं, किंतु प्राप्ति ज्ञान के द्वारा होती है। जब तक साधक के अंतःकरण में तत्त्वज्ञान का आलोक प्रज्वलित नहीं होता, तब तक उसकी भक्ति अंधी आस्था का स्वरूप ग्रहण कर सकती है।

तत्त्वज्ञान क्या है?
यह ‘तत्त्वमसि’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘सच्चिदानंद रूपाय’ जैसे महावाक्यों के आत्मबोध का अनुभव है—जो न केवल आत्मा और परमात्मा के अभेद को प्रकट करता है, बल्कि समस्त कर्म और आडंबर से परे, साधक को सीधे भगवत्स्वरूप की अनुभूति तक पहुँचाता है।

2. भक्ति और ज्ञान का अन्तर्गर्भ सम्बन्ध

जैसे दीपक की लौ में प्रकाश और ताप एकसाथ होते हैं, वैसे ही भक्ति और ज्ञान अभिन्न हैं। श्रीमद्भागवतम् में नारद कहते हैं:

“स वै पुम्सां परो धर्मो यतो भक्तिर्अधोक्षजे,
अहैतुकी अप्रतिहता यया आत्मा सुप्रसीदति॥”

यहाँ भक्ति का वर्णन है, किंतु “यया आत्मा सुप्रसीदति”—यह आत्मा की प्रसन्नता तब होती है जब वह अपने स्वरूप को जान लेता है। यह स्वरूप-ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है।

तुलसीदास ने रामचरितमानस में स्पष्ट कहा—

“सब कर फल हरि भक्ति भवानी,
जो न राम पद पंकज भानी ॥”

भक्ति का अंतिम फल है भगवान के चरणों में अनुरक्ति, पर यह अनुरक्ति भाव की निष्पत्ति है, और भाव वही फलता है, जहाँ “बोध” का आलंबन हो।

3. कर्मकाण्ड और बाह्य आडंबर की सीमाएँ

भगवान शिव पार्वती से कहते हैं:

“तावत्तपो व्रतं तीर्थ जपहोमार्च्चनादिकम्‌ !
वेदशास्त्रागमकथा यावत्तत्वं न विन्दते !!”

— अर्थात ये सभी कर्म और विधियाँ तब तक ही उपादेय हैं जब तक साधक तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ है। जैसे किसी कुंजी के बिना ताले को खोलने का प्रयास व्यर्थ होता है, वैसे ही ज्ञान के बिना साधना का अंतिम फल असंभव है।

4. तीर्थ, मूर्ति, पूजा का स्थान और उसका तात्त्विक दृष्टिकोण

भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत में कहा:

“न तीरथं तीर्थरूपाणां मुनीनां तीर्थमुत्तमम्।
ये हि ज्ञानप्रदा लोके ते तीर्थाः पुरुषर्षभ॥”

— तीर्थ वे नहीं जो भौगोलिक स्थानों पर आधारित हों, अपितु वे सत्पुरुष, जिनसे ज्ञान और विवेक का संचार हो।

इसका प्रमाण रामचरितमानस के इस दोहे में भी मिलता है—

“जेहिं दिन राम जन्म श्रुति गावहिं,
तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं॥”

यह तात्त्विक संकेत है कि जब हृदय में भगवत्प्रेम का प्राकट्य होता है, वही क्षण, वही स्थल स्वयं तीर्थ बन जाता है।

5. निष्कर्ष: भक्ति में ज्ञान का आलंबन क्यों आवश्यक है?

– भक्ति बिना ज्ञान के अंधश्रद्धा बन सकती है।
– ज्ञान बिना भक्ति के रूखा तर्कवाद बन जाता है।
– ज्ञान भक्ति को पुष्ट करता है, भक्ति ज्ञान को पावन करती है।

“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय?”
— जब जीव तत्त्व को जानता है, तब वह जानता है कि गुरु ही तत्त्वबोध का सेतु हैं, और उसी बोध से सच्ची भक्ति संभव है।

जो साधक तत्त्वज्ञान की उपेक्षा करते हुए केवल बाह्य कर्म, तीर्थयात्रा, व्रत, पूजा आदि में रत रहते हैं, वे कई जन्मों तक उसी चक्र में घूमते रहते हैं। किंतु जो साधक अपने कर्म के मर्म को समझते हैं, जो वेदों के अंतर्निहित लक्ष्य को जानकर प्रेमपूर्वक भगवान की शरण में जाते हैं—उनकी भक्ति निष्कलुष, निर्द्वंद्व और निष्काम होती है।

अतः, हे साधक! भक्ति करो, अवश्य करो—परंतु बोधपूर्वक करो।
तत्त्वज्ञान की जड़ में ही भक्ति का पुष्प खिलता है और मुक्ति का फल प्राप्त होता है।

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Author: SPP BHARAT NEWS

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