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जनसंख्या, धर्म और नीति: एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के सामने खड़ी जटिल चुनौती

जनसंख्या, धर्म और नीति: एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के सामने खड़ी जटिल चुनौती

भारत, दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश, एक बार फिर जनसंख्या नियंत्रण और धार्मिक असंतुलन के विमर्श के केंद्र में है। यह विषय भावनात्मक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर बार-बार चर्चा में आता है। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील “हरीश साल्वे”;ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जनसंख्या नियंत्रण कानून की सिफारिश की थी। परंतु सरकार की ओर से अब तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई।

प्रश्न यह है कि क्या भारत सचमुच जनसंख्या विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है? क्या मुस्लिम समुदाय जनसंख्या असंतुलन के लिए जिम्मेदार है, जैसा कि कई प्रचार माध्यमों द्वारा बार-बार प्रस्तुत किया जाता है? और क्या धार्मिक तुष्टिकरण की राजनीति हमारे नीति-निर्माण को प्रभावित कर रही है?

1. जनसंख्या: स्थिति और मिथक

भारत की कुल जनसंख्या अब लगभग 144 करोड़ को पार कर चुकी है। लेकिन जनसंख्या के आंकड़ों को केवल संख्यात्मक दृष्टि से देखना त्रुटिपूर्ण होगा।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार:

– भारत की कुल प्रजनन दर (TFR) अब 2.0 पर पहुंच चुकी है, जो कि जनसंख्या स्थिरता स्तर (2.1) से भी नीचे है।
– मुस्लिम समुदाय की “TFR” 1992 में “4.4” थी, जो अब “2.3” पर आ चुकी है – जो हिंदू समुदाय की 1.94 TFR के करीब है।

अर्थ:
जनसंख्या वृद्धि अब केवल एक धार्मिक मुद्दा नहीं रही है। बल्कि, यह क्षेत्रीय, शैक्षिक और आर्थिक असमानताओं से जुड़ा हुआ विषय है।

2. जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग और राजनीतिक असहजता

हर सरकार के सामने जनसंख्या नियंत्रण एक जटिल चुनौती रहा है। बीजेपी के 2019 के घोषणापत्र में जनसंख्या नियंत्रण का मुद्दा शामिल था, लेकिन जैसे-जैसे इसे “धार्मिक ध्रुवीकरण” से जोड़ा गया, सरकार ने इस पर चुप्पी साध ली।

संभावित कारण:

– इसे अल्पसंख्यक विरोधी कदम माना जा सकता है, जिससे सामाजिक अशांति फैले।
– राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक की चिंता — यद्यपि मुस्लिम समुदाय से भाजपा को अपेक्षाकृत कम वोट मिलते हैं, पर राष्ट्रीय छवि और अंतरराष्ट्रीय आलोचना का डर बड़ा कारण है।

3. तबलीगी जमात, धार्मिक सम्मेलन और कानून का समान उपयोग

2020 के कोरोना काल में तबलीगी जमात को लेकर देशभर में नकारात्मक विमर्श चला। लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट ने मीडिया और प्रशासन की एकतरफा कार्रवाई की आलोचना करते हुए आरोपियों को बरी किया।

हाल की घटनाएँ, जैसे दिल्ली में हुए धार्मिक सम्मेलन में कुछ मौलानाओं के बयान – “प्रत्येक मुस्लिम को 8 बच्चे पैदा करने चाहिए” – चिंताजनक और राष्ट्रविरोधी हैं। लेकिन यह बात पूरे समुदाय की सोच नहीं है।

जरूरत: ऐसे उग्र वक्ताओं पर कार्रवाई कानून के अनुसार हो — धर्म देखकर नहीं।

4. प्रशासनिक भागीदारी, उर्दू और मुस्लिम प्रतिनिधित्व

सरकार द्वारा उर्दू को एक वैकल्पिक विषय के रूप में शामिल करना एक भाषा नीति है, जो कई वर्षों से चली आ रही है। यह मुस्लिम समुदाय को प्रशासन में अधिक भागीदारी दिलाने का एक माध्यम हो सकता है, लेकिन इसे केवल “हिंदुओं के खिलाफ षड्यंत्र” कह देना अतिवादी और तथ्यहीन निष्कर्ष है।

भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष और समान अधिकारों की गारंटी देता है। भाषा के आधार पर अवसर देना, तब तक लोकतांत्रिक है जब तक वह भेदभाव पैदा न करे।

5. समाधान की दिशा में

(क) शिक्षा और महिला सशक्तिकरण :

सभी समुदायों में महिला शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं तक पहुंच जनसंख्या स्थिरीकरण की कुंजी है।

(ख) समान कानून व्यवस्था :

जो भी धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करने का प्रयास करे, उस पर कठोर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।

(ग) सांप्रदायिक तनाव की राजनीति से दूर रहना :

लोकतंत्र में तुष्टिकरण और बहिष्करण — दोनों ही खतरनाक हैं। नीति विकास और निष्पक्षता पर आधारित होनी चाहिए, न कि जाति या मज़हब पर।

भारत की चुनौतियाँ जटिल हैं। लेकिन समाधान की राह नफरत या डर फैलाने से नहीं, बल्कि तथ्यों, संविधान और न्यायिक तंत्र के बल पर ही मिलेगी।

राष्ट्र निर्माण किसी एक धर्म या समुदाय से नहीं, सभी के साझे योगदान से होता है। जनसंख्या नियंत्रण, धार्मिक संतुलन और नीति निर्धारण — ये सभी विषय गहराई से जुड़े हुए हैं, लेकिन इनमें समाधान संवेदनशील सोच, तटस्थ शासन और समान विकास नीति से ही संभव है।

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Author: SPP BHARAT NEWS

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