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प्राण तत्त्व: सनातन धर्म का जीवनदायिनी सिद्धांत

प्राण तत्त्व: सनातन धर्म का जीवनदायिनी सिद्धांत

प्राण तत्त्व सनातन धर्म के दार्शनिक और आध्यात्मिक सिद्धांतों का मूलाधार है। यह न केवल जीवन की ऊर्जा का स्रोत है, बल्कि समस्त सृष्टि के अस्तित्व और क्रियाशीलता का कारण भी है। वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, भगवद्गीता, और अन्य प्राचीन ग्रंथों में प्राण की महत्ता और उसके स्वरूप का विस्तृत वर्णन मिलता है।

प्राण की वेदों में महिमा

वेदों में प्राण को विराट, प्रेरक, और सर्वव्यापी शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अथर्ववेद में कहा गया है:

“प्राणो विराट प्राणो देवट्टी प्राणं सर्व उपासते। प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राण माहुः प्रजापतिम्॥” (अथर्ववेद)

अर्थात्: प्राण विराट है, सबका प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य, चन्द्र और प्रजापति है।

प्राण का ब्राह्मण ग्रंथों में स्वरूप

ब्राह्मण ग्रंथों में प्राण को विश्व के आदि निर्माण, सबमें व्यापक और पोषक माना गया है। बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है:

“कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म नद्रित्याचक्षते।” (बृहदारण्यक उपनिषद)

अर्थात्: वह एकदेव कौन सा है? वह प्राण है। ऐसा कौषीतकी ऋषि से व्यक्त किया है।

प्राण और प्रज्ञा का संबंध

शाखायन आरण्यक में प्राण और प्रज्ञा के संबंध को स्पष्ट किया गया है:

“प्राण एव प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्यं उत्थापयति। यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः।” (शाखायन आरण्यक 5.3)

अर्थात्: इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है, वह प्राण ही है। जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

प्राण की उत्पत्ति और विकास

प्रश्नोपनिषद में प्राण की उत्पत्ति और विकास का वर्णन किया गया है:

“स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नाद्धीर्य तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च।” (प्रश्नोपनिषद 6.4)

अर्थात्: परमात्मा ने सबसे प्रथम प्राण की रचना की। इसके बाद श्रद्धा उत्पन्न की। तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, और कर्मों का निर्माण हुआ। तदन्तर विभिन्न लोक बने।

प्राण की सर्वव्यापकता

एतरेय आरण्यक में प्राण की सर्वव्यापकता का उल्लेख है:

“सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या विष्टव्धानी त्येवं विद्यात्।” (एतरेय आरण्यक 2.1.6)

अर्थात्: प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।

भगवद्गीता में प्राण का स्थान

भगवद्गीता के सातवें अध्याय के श्लोक 5 में भगवान श्री कृष्ण ने प्राण की महत्ता को स्पष्ट किया है:

“अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्। जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥” (भगवद्गीता 7.5)

अर्थात्: यह आठ भेदों वाली प्रकृति अपरा प्रकृति है, जो जड़ प्रकृति भी कहलाती है। इसके अतिरिक्त एक अन्य परा प्रकृति होती है, जिसके द्वारा यह सारा जगत धारण किया जाता है।

प्राण का आध्यात्मिक महत्व

प्राण का आध्यात्मिक महत्व अत्यधिक है। भृगुतंत्र में कहा गया है:

“उत्पत्ति मायाति स्थानं विभुत्वं चैव पंचधा। अध्यात्म चैब प्राणस्य विज्ञाया मृत्यश्नुते॥” (भृगुतंत्र)

अर्थात्: प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक होता है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँच बातों को जान लेता है वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है।

प्राण तत्त्व सनातन धर्म का अभिन्न अंग है। यह न केवल जीवन की ऊर्जा का स्रोत है, बल्कि समस्त सृष्टि के अस्तित्व और क्रियाशीलता का कारण भी है। वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, भगवद्गीता, और अन्य प्राचीन ग्रंथों में प्राण की महत्ता और उसके स्वरूप का विस्तृत वर्णन मिलता है। प्राण का ज्ञान और उसका सही उपयोग व्यक्ति को आत्मज्ञान, मोक्ष और अमृतत्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर करता है। इसलिए, प्राण तत्त्व का अध्ययन और साधना जीवन के सर्वोत्तम उद्देश्य की प्राप्ति का मार्ग है।

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Author: SPP BHARAT NEWS

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