
“यह तो धर्मयुद्ध भड़काने जैसा है!”
दो दिन पहले भाजपा सांसद डॉ. निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट पर आरोप लगाते हुए कहा था,
“इस देश में यदि कोई धर्मयुद्ध भड़काने का जिम्मेदार होगा, तो वह सुप्रीम कोर्ट और उसके न्यायाधीश ही होंगे!”
वैज्ञानिक, लेखक और वक्ता आनंद रंगनाथन ने एक वीडियो बयान जारी कर दुबे का पूर्ण समर्थन करते हुए पूछते हैं:
प्रश्न 1.
मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने वाला अनुच्छेद 370 समाप्त किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष की याचिकाओं पर तुरंत विशेष पीठ बनाकर जल्द सुनवाई की। लेकिन 1990 में कश्मीरी हिंदुओं पर हुए अत्याचारों – जैसे जबरन पलायन, घरों पर कब्जा, मंदिरों का विध्वंस, हत्याएं, बलात्कार, नौकरी से निकालना – पर दायर याचिकाओं को यह कहकर खारिज कर दिया कि “अब बहुत समय हो गया है, हम यह मामला नहीं खोल सकते।”
क्या यह दोहरा मापदंड नहीं है?
क्या इससे हिंदू समाज में आक्रोश पैदा नहीं होगा?
क्या यह धर्मयुद्ध भड़काना नहीं है?
समीक्षा 1:
तथ्य:
– अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले को कई विपक्षी नेताओं और संगठनों ने संवैधानिक चुनौती दी थी, यह सीधे संविधान और संघीय ढांचे से जुड़ा मसला था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक पीठ को सौंपा और सुनवाई की प्राथमिकता दी।
– कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार/पलायन की याचिकाओं को कई बार दाखिल किया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में एक प्रमुख याचिका (Roots in Kashmir) को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि: “घटनाएं 27 साल पुरानी हैं, अब जांच करना कठिन है, और सबूत जुटाना संभव नहीं।”
(Ref: Supreme Court, July 2017 decision)
विश्लेषण:
– कोर्ट की यह बात तकनीकी रूप से सही हो सकती है, लेकिन यह न्याय की भावना के खिलाफ जाती दिखती है।
अगर 1984 सिख दंगे, 2002 गुजरात दंगे, या 1989 बोफोर्स जैसे पुराने मामलों की जांच और सुनवाई चल सकती है,
तो 1990 के बाद कश्मीरी हिंदुओं पर हुए अत्याचारों को “पुराना” कहकर नकारना एक पक्षपाती दृष्टिकोण की तरह प्रतीत होता है।
– यह निर्णय कानूनी प्रक्रिया की सीमाओं पर आधारित हो सकता है, परंतु सामाजिक और नैतिक न्याय की दृष्टि से यह हिंदू समुदाय में असंतोष और पीड़ा का कारण बना है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का रवैया इस मामले में तकनीकी रूप से उचित हो सकता है, लेकिन एक बड़े समुदाय की ऐतिहासिक पीड़ा को अनसुना करना एक गंभीर नैतिक प्रश्न है।
यह सवाल दोहरे मापदंड और संवेदनशीलता की कमी की ओर संकेत करता है।
प्रश्न 2.
सुप्रीम कोर्ट को आज वक्फ बोर्ड की चिंता है,
लेकिन पिछले 30 वर्षों में वक्फ बोर्ड द्वारा अवैध तरीके से हड़पी गई संपत्तियां, समानांतर न्याय प्रणाली, और कर नहीं भरना – क्या ये सब अदालत को दिखाई नहीं दिए?
आज यदि वक्फ कानून के सुधार से इस्लाम खतरे में लगता है, तो क्या हिंदुओं की जमीनों पर मस्जिदें और मकबरे बनाना उचित था?
वक्फ बोर्ड ने पिछले 10 वर्षों में 20 लाख हिंदू संपत्तियां कब्जा लीं –
इस पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी धर्मयुद्ध नहीं तो और क्या है?
समीक्षा 2:
तथ्य:
वक्फ बोर्ड क्या है?
– “वक्फ” एक इस्लामी प्रथा है, जिसमें मुसलमान अपनी संपत्ति धार्मिक या परोपकारी उपयोग के लिए वक्फ (दान) करते हैं।
– भारत में वक्फ अधिनियम 1995 के तहत राज्य वक्फ बोर्डों और केंद्रीय वक्फ परिषद का गठन होता है।
– देश में वक्फ बोर्ड के पास लगभग 8 लाख से अधिक संपत्तियाँ हैं (सरकारी आंकड़ों के अनुसार)।
विवाद क्या है?
– आरोप है कि वक्फ बोर्डों ने अवैध रूप से निजी या सार्वजनिक जमीनों को वक्फ घोषित कर कब्जा किया है।
– RTI और मीडिया रिपोर्टों में सामने आया कि 20 लाख तक संपत्तियाँ वक्फ द्वारा कब्जाई गई हैं (यह आंकड़ा विवादास्पद है और स्वतंत्र रूप से सत्यापित नहीं है)।
– वक्फ बोर्ड कर नहीं देता, लेकिन मंदिर या अन्य धर्मस्थलों को सरकारी नियंत्रण में रखा गया है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका:
– वक्फ से जुड़े कई विवाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में पहुंचे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने शायद ही कभी वक्फ बोर्ड की वैधता या शक्तियों की व्यापक समीक्षा की हो।
– जब राज्य सरकारें वक्फ कानून में संशोधन या नियंत्रण की कोशिश करती हैं, तो धार्मिक भावनाओं के उल्लंघन का हवाला देकर कोर्ट कभी-कभी रुकावट बनता है।
– वहीं, हिंदू संस्थानों पर नियंत्रण को वैध माना गया है (उदाहरण: सबरीमाला, तिरुपति, पद्मनाभस्वामी आदि)।
विश्लेषण:
– यह सवाल अदालत की निष्पक्षता और संतुलन पर तर्कपूर्ण प्रश्न खड़ा करता है। अगर अदालतें हिंदू संस्थानों की पारदर्शिता और प्रशासन में हस्तक्षेप करती हैं, तो उन्हें वक्फ बोर्ड की कार्यप्रणाली पर भी उतनी ही सख्ती दिखानी चाहिए।
– अवैध कब्जे, समानांतर कानून प्रणाली, और टैक्स छूट जैसे मसले धर्मनिरपेक्षता की भावना के विरुद्ध हैं; और यदि न्यायपालिका इन पर चुप है, तो इससे एक वर्ग में असंतोष स्वाभाविक है।
– यह भी चिंता का विषय है कि वक्फ की संपत्ति कोई चुनौती नहीं दे सकता, क्योंकि एक बार संपत्ति वक्फ घोषित हो जाए तो उसका मालिकाना विवाद वक्फ ट्रिब्यूनल ही देखता है – और यह समान कानूनी व्यवस्था के सिद्धांत से मेल नहीं खाता।
निष्कर्ष:
वक्फ बोर्ड की कानूनी शक्ति, संपत्ति नियंत्रण और न्यायिक निगरानी के अभाव को लेकर जो सवाल उठाए गए हैं, वे न्याय व्यवस्था की संतुलनहीनता को दर्शाते हैं। सुप्रीम कोर्ट यदि इस विषय पर चुप रहा है, तो यह निश्चित रूप से विश्वास में कमी और ध्रुवीकरण की भावना को बढ़ा सकता है।
प्रश्न 3.
हिंदू मंदिर सरकार के अधीन हैं, उनकी आय से मदरसों, हज यात्रा, वक्फ बोर्ड, इफ्तार पार्टी, कर्ज आदि पर खर्च किया जाता है। वहीं, हिंदू धार्मिक कार्यों पर रोक, उनकी याचिकाओं को लटकाना,
अल्पसंख्यकों को हमेशा प्राथमिकता देना –
क्या यह न्याय है? या हिंदू समाज के मन में आक्रोश उत्पन्न करने का एक तरीका?
समीक्षा 3:
तथ्य:
1. मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण:
– भारत के कई बड़े मंदिर, विशेष रूप से दक्षिण भारत में (जैसे तिरुपति, पद्मनाभस्वामी, सबरीमाला आदि), सरकारी ट्रस्टों द्वारा संचालित किए जाते हैं।
– हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्त अधिनियम (HR&CE Act) जैसे कानूनों के तहत राज्य सरकारें मंदिरों की संपत्तियाँ, आय और नियुक्तियों पर नियंत्रण रखती हैं।
– मुस्लिम और ईसाई संस्थाएं इस तरह के सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं।
2. मंदिरों की आय का उपयोग:
– मंदिरों की आय का एक हिस्सा राज्य सरकार के खाते में जाता है।
– उदाहरण: तिरुपति बालाजी मंदिर हर वर्ष हजारों करोड़ की आय अर्जित करता है, और उसका कुछ हिस्सा गैर-धार्मिक कार्यों में (जैसे हॉस्पिटल, शिक्षा, सरकारी योजनाएँ) लगाया जाता है।
– कुछ राज्यों में यह आय मदरसों, हज सब्सिडी (अब बंद), इफ्तार आयोजन आदि में भी प्रयुक्त हुई है – यह आरोप कई RTI और मीडिया रिपोर्टों में दर्ज हैं।
3. धार्मिक पक्षपात का अनुभव:
– हिंदू त्योहारों या धार्मिक आयोजनों पर अक्सर कोर्ट या प्रशासन पर्यावरण, ध्वनि, या सार्वजनिक व्यवस्था के नाम पर प्रतिबंध लगाते हैं।
– वहीं, अन्य धर्मों के आयोजनों पर ऐसा हस्तक्षेप अपेक्षाकृत कम देखा जाता है – यह धारणा कई लोगों के बीच है।
विश्लेषण:
– यह बात तथ्यात्मक रूप से सही है कि केवल हिंदू धार्मिक संस्थान ही सरकारी नियंत्रण में हैं – यह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से असंगत है।
– सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक इस असमानता को स्पष्ट रूप से असंवैधानिक घोषित नहीं किया, बल्कि इसे राज्य की “धार्मिक संस्थाओं की निगरानी” की शक्ति के तहत सही ठहराया गया।
– यदि मंदिरों की आय से गैर-हिंदू संस्थानों को लाभ मिल रहा है, और मंदिरों की धार्मिक स्वतंत्रता संकुचित की जा रही है, तो यह गंभीर चिंता का विषय है।
– यह स्थिति बहुसंख्यक समाज को यह महसूस करवा सकती है कि उसके धार्मिक अधिकार और संसाधन समानता के आधार पर संरक्षित नहीं हैं।
निष्कर्ष:
मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण और उनके संसाधनों का गैर-धार्मिक/गैर-हिंदू उपयोग, जबकि अन्य धर्मों को स्वतंत्रता – यह भारत की “धर्मनिरपेक्षता” की असमान व्याख्या को उजागर करता है।
यह न केवल संवैधानिक रूप से चुनौती देने योग्य है, बल्कि सामाजिक तनाव और आक्रोश को भी जन्म देता है।
प्रश्न 4.
शिक्षा के अधिकार के तहत, हिंदू संस्थाओं को 25% सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करनी होती हैं।
जबकि मुस्लिम और ईसाई संस्थाओं पर कोई ऐसा नियम नहीं। इससे हजारों हिंदू स्कूल बंद हो गए और हिंदू बच्चे दूसरे धर्मों की संस्थाओं में पढ़ने लगे।
क्या यह भी धर्मांतरण को बढ़ावा नहीं है?
क्या सुप्रीम कोर्ट को यह पक्षपात दिखाई नहीं देता?
समीक्षा 4:
तथ्य:
1. शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009:
– RTE एक्ट के अनुसार, सभी गैर-अल्पसंख्यक निजी स्कूलों को 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए 25% सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए आरक्षित करनी होती हैं।
– इस अधिनियम की धारा 12(1)(c) इन स्कूलों को बिना फीस के पढ़ाने का आदेश देती है, और सरकार उन्हें कुछ हद तक अनुदान देती है।
2. अल्पसंख्यक संस्थानों को छूट क्यों?
– संविधान की धारा 29 और 30 के अनुसार, अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी शिक्षा संस्थाएँ चलाने और प्रशासित करने का विशेष अधिकार है।
– सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों (जैसे T.M.A. Pai Foundation Case, 2002) में अल्पसंख्यक संस्थाओं को RTE अधिनियम से छूट दी है, ताकि उनकी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान संरक्षित रह सके।
3. इसके प्रभाव:
– परिणामस्वरूप, हिंदू संस्थानों पर तो RTE लागू होता है, लेकिन अल्पसंख्यक स्कूलों को छूट मिल जाती है।
– इससे कई हिंदू प्राइवेट स्कूलों को आर्थिक नुकसान, प्रशासनिक बोझ और अंततः बंद होने की नौबत आ गई।
– कई हिंदू बच्चे अब मुस्लिम/ईसाई संस्थानों में पढ़ रहे हैं, जहाँ पर धार्मिक प्रभाव अधिक हो सकता है – इसे कुछ लोग अप्रत्यक्ष धर्मांतरण के रूप में देखते हैं।
विश्लेषण:
– यह संवैधानिक और नैतिक असमानता स्पष्ट है – RTE अधिनियम सभी बच्चों के लिए बना है, लेकिन इसके प्रभाव में बहुसंख्यक संस्थाएं बोझ उठाती हैं और अल्पसंख्यक संस्थाएं छूट का लाभ उठाती हैं।
– सुप्रीम कोर्ट ने इस पक्षपात को संवैधानिक “विशेष अधिकार” मानकर वैध ठहराया है, लेकिन इसका व्यावहारिक असर हिंदू समाज के लिए असंतुलनपूर्ण है।
– यदि किसी भी वर्ग की संस्थाएं सार्वजनिक शिक्षा का हिस्सा हैं, तो समान नियम लागू होने चाहिए – वरना यह एक सांस्कृतिक और आर्थिक असमानता पैदा करता है।
निष्कर्ष:
RTE कानून में अल्पसंख्यक संस्थाओं को दी गई छूट एक संवैधानिक विशेषाधिकार है, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ है कि हिंदू संस्थाओं को असमान रूप से बाधित किया गया, जिससे सामाजिक असंतोष और धर्मांतरण की आशंका को बल मिला है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस असंतुलन को अब तक चुनौती नहीं दी – जो इस सवाल को न्यायोचित बनाता है।
प्रश्न 5.
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी दोहरी नीति:
हिंदुओं की बात हेट स्पीच, और दूसरों की बात फ्री स्पीच मानी जाती है। नूपुर शर्मा ने सिर्फ हदीस का उल्लेख किया – उसे कोर्ट ने हेट स्पीच कहा। लेकिन स्टालिन और अन्य नेताओं ने सनातन धर्म को “रोग” बताया – कोर्ट ने उस पर चुप्पी साध ली।
क्या यह निष्पक्ष न्याय है?
समीक्षा 5:
तथ्य:
1. नूपुर शर्मा प्रकरण (2022):
– बीजेपी प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने एक टीवी डिबेट में इस्लामी हदीस का हवाला देते हुए मोहम्मद साहब पर टिप्पणी की।
– इसके बाद देशभर में हिंसा, विरोध और धमकियाँ शुरू हो गईं।
– सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा: “पूरा देश जो हो रहा है, उसकी जिम्मेदार आप हैं… आपको माफी मांगनी चाहिए।”
– कोर्ट की यह मौखिक टिप्पणी कोई आधिकारिक निर्णय नहीं थी, लेकिन इसका प्रभाव व्यापक और राजनीतिक था।
2. स्टालिन और सनातन धर्म:
– तमिलनाडु में डीएमके नेताओं, खासकर उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म की तुलना “डेंगू, मलेरिया, कुष्ठ रोग” से की।
– इस बयान पर बड़े पैमाने पर हिंदू संगठनों ने आपत्ति जताई।
– सुप्रीम कोर्ट ने इस पर स्वतः संज्ञान नहीं लिया, और कोई सीधी कानूनी कार्यवाही नहीं हुई।
विश्लेषण:
– अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Article 19) एक मूल अधिकार है, लेकिन इसका सीमा बंधन भी है – यदि कोई बात घृणा फैलाए, सांप्रदायिक तनाव बढ़ाए या हिंसा को उकसाए, तो वह “हेट स्पीच” मानी जा सकती है।
– परंतु यहां यह प्रश्न उठता है:
– अगर नूपुर शर्मा की बात सिर्फ धार्मिक ग्रंथ का हवाला दी थी, और उसे हेट स्पीच माना गया,
– तो सनातन धर्म को “समाप्त करने योग्य रोग” कहना उससे कहीं अधिक आपत्तिजनक है – यह करोड़ों हिंदुओं के विश्वास का अपमान है।
– सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मामलों में विभिन्न दृष्टिकोण अपनाया, जिससे निष्पक्षता पर सवाल उठे।
न्यायिक मानक की असंगति:
– हेट स्पीच का निर्धारण भाषा, मंशा और प्रभाव पर निर्भर करता है।
– लेकिन जब एक ही प्रकार के भाषण को एक पक्ष के लिए आपराधिक और दूसरे के लिए “राजनीतिक विचार” माना जाए – तो यह दोहरे मानदंड और संविधान की भावना के विरुद्ध है।
निष्कर्ष:
इस सवाल में उठाया गया आरोप संवैधानिक सिद्धांतों और न्यायिक निष्पक्षता की कसौटी पर तर्कसंगत है। यदि अदालतें एक पक्ष की धार्मिक आलोचना को हेट स्पीच कहें और दूसरे की को मौन समर्थन दें, तो यह न्याय में असमानता और समाज में विभाजन की भावना को जन्म देता है।
प्रश्न 6.
सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू परंपराओं जैसे दशहरे के बली प्रथा पर रोक लगा दी, लेकिन हलाल, ईद के दौरान सामूहिक पशुहत्या – उस पर कोई सवाल नहीं।
जन्माष्टमी पर हांडी की ऊँचाई पर रोक, लेकिन मोहर्रम की हिंसा पर कोई कार्रवाई नहीं। दिवाली के पटाखे पर्यावरण के लिए बुरे, लेकिन क्रिसमस के पटाखे नहीं।
क्या यह भेदभाव नहीं?
समीक्षा 6:
तथ्य:
1. हिंदू त्योहारों पर न्यायिक और प्रशासनिक प्रतिबंध:
– दिवाली पर पटाखों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 2018 से लेकर अब तक कई आदेश दिए:
– केवल ग्रीन पटाखों की अनुमति।
– सीमित समय (जैसे रात 8 से 10 बजे)।
– बच्चों और पर्यावरण को नुकसान रोकने का हवाला।
– जन्माष्टमी पर ‘दही-हांडी’ की ऊँचाई और प्रतिभागियों की उम्र पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने 2016 में प्रतिबंध लगाए, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी बाद में बहाल रखा।
– दशहरे पर जानवरों की बलि को लेकर कई राज्यों में PETA और अन्य संगठनों की याचिकाओं पर कार्रवाई हुई। कुछ परंपराओं पर प्रशासनिक पाबंदी लगाई गई।
2. अन्य धर्मों की प्रथाओं पर स्थिति:
– बकरीद (ईद-उल-अज़हा) के दौरान सार्वजनिक स्थलों पर पशुबलि दी जाती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालयों ने कभी इसे रोकने का सीधा आदेश नहीं दिया।
– हलाल प्रथा, जिसमें जानवर की विशिष्ट विधि से बलि होती है, उस पर कोई पर्यावरणीय या नैतिक प्रतिबंध लागू नहीं हुआ।
– मोहर्रम की ताजिया जुलूस, जिनमें कभी-कभी हिंसक घटनाएँ होती हैं, उन पर भी कोई विशेष न्यायिक पाबंदी नहीं लगाई गई।
– क्रिसमस या न्यू ईयर पर पटाखे और आतिशबाजी, विशेष रूप से शहरी इलाकों में, उतनी सख्ती से नियंत्रित नहीं की जाती, जितनी दिवाली पर।
विश्लेषण:
– जब न्यायपालिका ध्वनि प्रदूषण, प्राणियों की पीड़ा, या सार्वजनिक सुरक्षा के आधार पर एक धर्म की परंपराओं पर कड़ा रुख अपनाती है, लेकिन वही मानक दूसरे धर्मों की प्रथाओं पर लागू नहीं करती; तो यह दोहरे मानदंड और न्यायिक संतुलन के अभाव को दर्शाता है।
– धार्मिक भावनाएँ सभी समुदायों के लिए संवेदनशील होती हैं। यदि हिंदू त्योहारों को नियंत्रित किया जा सकता है, तो समान मानदंड अन्य समुदायों पर भी लागू होने चाहिए।
– संविधान की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार है – न कि केवल बहुसंख्यकों पर नियंत्रण।
निष्कर्ष:
यह सवाल न्यायपालिका और प्रशासन की सांस्कृतिक पक्षपात की धारणा को उजागर करता है। यदि हिंदू परंपराओं को प्रदूषण, पशु अधिकार या सार्वजनिक सुरक्षा के आधार पर प्रतिबंधित किया जाता है, तो वही मानदंड अन्य धार्मिक प्रथाओं पर भी लागू होने चाहिए – वरना यह न्याय में असमानता और समाज में ध्रुवीकरण को जन्म देता है।
प्रश्न 7.
प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 को 2019 में कठोर बना दिया गया, ताकि 15 अगस्त 1947 से पहले के धार्मिक स्थलों की स्थिति में कोई बदलाव न किया जा सके। इससे हिंदुओं की प्राचीन मंदिरों को पुनः प्राप्त करने की राह बंद हो गई। राम मंदिर के लिए वर्षों संघर्ष करना पड़ा, बाकी स्थल अब भी कब्जे में हैं।
क्या यह ऐतिहासिक अन्याय नहीं?
समीक्षा 7:
तथ्य:
1. क्या है Places of Worship (Special Provisions) Act, 1991 :
– यह कानून कहता है कि: “1947 के समय जो धार्मिक स्थल जिस धर्म के उपयोग में था, उसकी स्थिति वैसी ही रहेगी – उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।”
– धारा 4(1) इस बात को सुनिश्चित करती है कि कोई भी धार्मिक स्थल अब “किसी और धर्म” के लिए परिवर्तित न किया जाए।
– इस कानून में एकमात्र अपवाद है – राम जन्मभूमि, अयोध्या, जिसकी यथास्थिति पहले से न्यायालय में विचाराधीन थी।
2. विवाद क्यों?
– भारत में कई स्थानों पर (जैसे काशी विश्वनाथ, मथुरा कृष्ण जन्मभूमि आदि) पर ऐतिहासिक मंदिरों को ध्वस्त कर वहाँ मस्जिदें बनाई गईं – इस पर इतिहासकारों, पुरातत्व और जनभावनाओं के प्रमाण मौजूद हैं।
– परंतु 1991 का यह कानून कहता है कि इन मामलों को फिर से नहीं खोला जा सकता, चाहे ऐतिहासिक अन्याय हुआ हो या न हुआ हो।
– राम जन्मभूमि का निर्णय (2019 में) केवल इसलिए संभव हुआ क्योंकि वह केस इस कानून के लागू होने से पहले ही न्यायालय में था।
विश्लेषण:
– यह कानून संसद द्वारा धार्मिक सौहार्द बनाए रखने के उद्देश्य से पारित किया गया था, ताकि नई धार्मिक मांगों के नाम पर हिंसा या अस्थिरता न फैले।
– लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि:
– यह कानून ऐतिहासिक अन्याय को स्थायी रूप से “फ्रीज़” कर देता है।
– यह केवल हिंदुओं की आस्था को सीमित करता है, क्योंकि अन्य धर्मों की धार्मिक भूमि वापसी की माँगें नहीं हैं।
– इससे हिंदू समाज को यह अनुभव होता है कि उनसे अपना इतिहास भूलने को कहा जा रहा है, जबकि जो मंदिर तोड़े गए, उन्हें कभी वापस पाने का संवैधानिक रास्ता ही नहीं है।
– सुप्रीम कोर्ट ने अब तक इस कानून को वैध माना है, लेकिन कई याचिकाएँ अब इस अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती दे रही हैं।
निष्कर्ष:
Places of Worship Act, 1991 अपने समय में धार्मिक शांति बनाए रखने का प्रयास था, लेकिन यह ऐतिहासिक अन्यायों के निवारण का रास्ता पूरी तरह बंद करता है – विशेषकर हिंदुओं के लिए, जिनके हजारों मंदिरों को अतीत में ध्वस्त किया गया था।
यह कानून सुप्रीम कोर्ट की नजर में वैध हो सकता है, लेकिन धार्मिक और ऐतिहासिक न्याय की कसौटी पर अधूरा लगता है।
प्रश्न 8.
शबरीमाला मामले में भी कोर्ट ने हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचाई। कुछ मंदिरों में पुरुषों की, कुछ में महिलाओं की प्रवेश परंपराएं हैं – लेकिन कोर्ट ने केवल हिंदुओं को निशाना बनाया।
जबकि इस्लाम में महिलाओं को मस्जिद, कुरान आदि से रोका जाता है, ईसाई धर्म में महिला पादरी नहीं बन सकती – तो उनपर कोई सवाल क्यों नहीं?
समीक्षा 8:
तथ्य:
1. शबरीमाला मामला:
– केरल के शबरीमाला मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं का प्रवेश पारंपरिक रूप से वर्जित था, क्योंकि यह भगवान अयप्पा की नैष्ठिक ब्रह्मचारी (पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत) परंपरा से जुड़ा है।
– 2018 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ (5 न्यायाधीश) ने 4-1 से फैसला सुनाया कि: “यह प्रतिबंध लैंगिक भेदभाव है और महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।”
– इस फैसले का केरल में भारी विरोध हुआ और हिंदू संगठनों ने इसे परंपराओं में हस्तक्षेप माना।
2. अन्य धर्मों की परंपराएँ:
– इस्लाम में :
– महिलाओं का मस्जिद में प्रवेश कई स्थानों पर प्रतिबंधित या सीमित है।
– वे इमाम या नमाज़ की अगुवाई नहीं कर सकतीं।
– मजारों या दरगाहों में भी कई जगह महिलाओं के प्रवेश पर रोक है (जैसे हाजी अली दरगाह विवाद)।
– ईसाई धर्म में:
– महिला पादरी (Catholic Church) नहीं बन सकतीं।
– चर्च में महिलाओं की भूमिका अभी भी सीमित है।
3. सुप्रीम कोर्ट की भूमिका:
– सुप्रीम कोर्ट ने हाजी अली दरगाह के मामले में कहा कि महिलाओं को दरगाह में प्रवेश देना होगा, लेकिन वह मामला सिविल अधिकार की श्रेणी में था और धार्मिक आस्था से कम गहराई से जुड़ा था।
– ईसाई और मुस्लिम धार्मिक परंपराओं के बड़े संरचनात्मक भेदभावों पर कोई व्यापक या संवैधानिक सुनवाई नहीं हुई है।
विश्लेषण:
– शबरीमाला का मामला विशिष्ट धार्मिक आस्था और परंपरा से जुड़ा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे सामाजिक सुधार और समानता का विषय मानते हुए धार्मिक स्वतंत्रता (Article 25) पर मौलिक अधिकार (Article 14, 15) को प्राथमिकता दी।
– यह एक सैद्धांतिक बहस है – क्या धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं कि एक परंपरा, चाहे वह तर्कसंगत हो या नहीं, उस समुदाय द्वारा मान्य है?
– यदि सभी धर्मों की परंपराओं को समान रूप से न्यायिक समीक्षा में नहीं लाया जाता, तो केवल हिंदू धर्म को “सुधार योग्य” या “कुप्रथाओं वाला” मानना पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट ने शबरीमाला में धार्मिक परंपरा से ऊपर समानता का अधिकार रखा, लेकिन यही कसौटी अन्य धर्मों पर समान रूप से लागू नहीं की गई। इससे एक मजबूत धारणा बनती है कि केवल हिंदू आस्था को बार-बार न्यायिक हस्तक्षेप का लक्ष्य बनाया जाता है – जो न्यायिक निष्पक्षता और धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना के विरुद्ध है।
प्रश्न 9.
शाहीनबाग आंदोलन और CAA विरोध में जो दंगे हुए, उस पर भी सुप्रीम कोर्ट की भूमिका एकतरफा थी। सार्वजनिक रास्ता रोकने वाले प्रदर्शन पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई।
क्या यह कानून का मज़ाक नहीं? और क्या यह भी हिंदू समाज में आक्रोश नहीं बढ़ाता ?
समीक्षा 9:
तथ्य:
1. CAA (Citizenship Amendment Act), 2019:
– यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए धार्मिक अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई) को नागरिकता देने की व्यवस्था करता है – मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया क्योंकि वे इन देशों में बहुसंख्यक हैं।
– इस कानून के खिलाफ देशभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए, जिसमें सबसे प्रतीकात्मक था दिल्ली का शाहीनबाग आंदोलन।
2. शाहीनबाग आंदोलन (दिसंबर 2019 – मार्च 2020):
– आंदोलनकारियों ने सार्वजनिक सड़क (कालिंदी कुंज मार्ग) को लगभग 100 दिनों तक पूरी तरह अवरुद्ध किया। इससे लाखों लोगों को रोज़ाना असुविधा हुई।
– सुप्रीम कोर्ट ने मामले को स्वतः संज्ञान में नहीं लिया, बल्कि जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई की और “मध्यस्थता” की प्रक्रिया अपनाई।
– अंतिम रूप से कोर्ट ने कहा: “सार्वजनिक स्थानों को अनिश्चितकाल तक अवरुद्ध नहीं किया जा सकता।” लेकिन तब तक आंदोलन ख़ुद ही समाप्त हो चुका था (कोविड लॉकडाउन के चलते)।
3. हिंसा और अराजकता:
– फरवरी 2020 में दिल्ली दंगे हुए, जिसमें 50+ लोग मारे गए – यह CAA विरोध की पृष्ठभूमि में हुआ।
– हिंसा भड़काने वाले भाषण, पत्थरबाज़ी, और सांप्रदायिक तनाव जैसी घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई कठोर टिप्पणी या स्वतः संज्ञान नहीं लिया।
विश्लेषण:
– सार्वजनिक मार्गों का महीनों तक अवरोध, वह भी धर्म के नाम पर, कानून व्यवस्था की विफलता और जनजीवन पर हमला माना जाना चाहिए।
– लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर तुरंत हस्तक्षेप नहीं किया, और न्यायिक कार्रवाई की तुलना में एक सॉफ्ट दृष्टिकोण अपनाया।
– जब दूसरी ओर हिंदू त्योहारों, यात्राओं या प्रदर्शनों को रोकने में कोर्ट और प्रशासन तत्परता दिखाते हैं – तो यह स्पष्ट दोहरा मापदंड प्रतीत होता है।
निष्कर्ष:
शाहीनबाग आंदोलन और CAA विरोध में सुप्रीम कोर्ट की निष्क्रियता ने कई लोगों के मन में न्यायपालिका की पक्षपातपूर्ण छवि बना दी है। जब एक धर्म विशेष की सार्वजनिक अवज्ञा को सहिष्णुता से देखा जाए, और दूसरे की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी और हस्तक्षेप हो, तो यह संविधान के समता सिद्धांत और निष्पक्षता के मूल को आहत करता है।

Author: SPP BHARAT NEWS
