Home » राष्ट्रीय » “न्यायपालिका बनाम ‘फिक्सर सिस्टम’: पूर्व CJI गोगोई के गंभीर आरोप और भारतीय न्याय व्यवस्था की सच्चाई”

“न्यायपालिका बनाम ‘फिक्सर सिस्टम’: पूर्व CJI गोगोई के गंभीर आरोप और भारतीय न्याय व्यवस्था की सच्चाई”

“न्यायपालिका बनाम ‘फिक्सर सिस्टम’: पूर्व CJI गोगोई के गंभीर आरोप और भारतीय न्याय व्यवस्था की सच्चाई”

भारत की न्यायिक व्यवस्था एक बार फिर कठघरे में है, और इस बार सवाल उठाने वाले कोई और नहीं, बल्कि देश के 46वें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई हैं। एक टेलीविज़न इंटरव्यू में गोगोई ने कुछ ऐसे तथ्य और आरोप उजागर किए, जिन्होंने न केवल न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए, बल्कि ‘पावर ब्रोकर’ यानी ‘फिक्सर संस्कृति’ को भी बेनकाब किया, जो देश की सबसे बड़ी अदालत की आत्मा पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है।

गोगोई का बयान: न्यायपालिका का सच या निजी अनुभव?

पूर्व CJI रंजन गोगोई ने कहा: “मैं चाहकर भी भारत की न्यायपालिका को सुधार नहीं सकता क्योंकि यह कुछ बड़े ‘फिक्सरों’ के कब्जे में है, जो जब चाहें, जैसा चाहें, वैसा फैसला करा सकते हैं।”

गोगोई ने सीधे तौर पर नाम लिए — कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, दुष्यंत दवे और प्रशांत भूषण — जिन्हें उन्होंने “बड़े फिक्सर” कहा। उनका आरोप था कि यही लोग सुप्रीम कोर्ट के भीतर निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं और अपने प्रभाव का उपयोग करके अदालतों में मनचाहा आदेश निकलवा सकते हैं।

गोगोई ने यह भी जोड़ा कि, “भारत की न्यायिक व्यवस्था मध्यम वर्ग या गरीब आदमी के लिए न्याय नहीं दे सकती। अगर आप अरबपति हैं, तो आपको न्याय मिलेगा — और वो भी वैसा, जैसा आपके वकील चाहते हैं।”

आर्थिक दृष्टिकोण: न्याय में देरी, विकास में बाधा

गोगोई ने एक और महत्वपूर्ण बात कही: “भारत यदि 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना चाहता है, तो सबसे पहले अपनी न्यायिक व्यवस्था को सुधारना होगा।”

उनके अनुसार, वर्षों तक खिंचते मुकदमे, मुकदमों में देरी, भ्रष्टाचार, और निर्णयों में पक्षपात भारत की आर्थिक प्रगति को धीमा कर रहे हैं। भूमि विवाद, कॉरपोरेट झगड़े, निवेश सुरक्षा — इन सभी में अदालत की निष्क्रियता निवेशकों को भारत से दूर करती है।

न्यायपालिका के ‘दो चेहरे’: तीस्ता सीतलवाड़ बनाम किरीट सोमैया

पूर्व CJI के आरोपों को दो उदाहरणों से समझना बेहद जरूरी है:

1. किरीट सोमैया का मामला : उन पर आईएनएस विराट के लिए चंदे का गबन करने का आरोप लगा। तीन अदालतों ने उन्हें अग्रिम जमानत नहीं दी।

2. तीस्ता सीतलवाड़ का मामला : अरबों रुपये विदेशों से चंदे में लेने, ट्रस्ट के पैसे से निजी खर्च चलाने के सबूत मिलने के बावजूद जब पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने पहुँची, तब सिर्फ 10 मिनट में सुप्रीम कोर्ट से गिरफ्तारी पर रोक लग गई — फोन कॉल पर आदेश!

यह भारत के इतिहास में पहला मौका था जब सुप्रीम कोर्ट ने टेलीफोनिक सुनवाई कर केवल 3 मिनट में आदेश दिया। गोगोई के आरोपों की सच्चाई इन मामलों में झलकती है।

राना अय्यूब और जहांगीरपुरी का उदाहरण : राना अय्यूब द्वारा डोनेशन का दुरुपयोग और जहांगीरपुरी में अवैध निर्माण पर कार्यवाही को सुप्रीम कोर्ट द्वारा तत्काल रोके जाने का उदाहरण दिखाता है कि किस तरह कुछ मामलों में न्याय की गति ‘असाधारण’ हो जाती है — जब पक्ष विशेष के ‘फिक्सर’ सक्रिय होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी: स्वीकारोक्ति या विवशता?

गोगोई के इन गंभीर आरोपों पर सुप्रीम कोर्ट या भारत सरकार की ओर से कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं आई। यदि यह आरोप किसी आम व्यक्ति द्वारा लगाए गए होते तो शायद अदालतें स्वतः संज्ञान लेतीं, लेकिन जब एक पूर्व CJI इस तरह के आरोप लगाते हैं, और उसके बावजूद सत्ता तंत्र शांत रहता है, तो यह संदेह को और गहरा करता है।

क्या समाधान है?

– न्यायपालिका की जवाबदेही तय हो।
– जजों की नियुक्ति पारदर्शी प्रक्रिया से हो — केवल कॉलेजियम नहीं।
– ‘फिक्सर’ संस्कृति पर कड़ा नियंत्रण हो।
– सभी मामलों में समान स्तर की तात्कालिकता और निष्पक्षता सुनिश्चित की जाए।
– निचली अदालतों को मजबूत किया जाए और मुकदमे की समय सीमा तय की जाए।

रंजन गोगोई की बातों से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन उन्हें अनसुना नहीं किया जा सकता। उन्होंने जो कुछ कहा, वह केवल अनुभव नहीं, एक प्रणालीगत समस्या की ओर इशारा करता है।
यदि भारत को एक निष्पक्ष, पारदर्शी और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनना है, तो उसकी न्यायपालिका को हर प्रकार के प्रभाव से मुक्त करना अनिवार्य है।

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Author: SPP BHARAT NEWS

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