कलम की आज़ादी और चेतना पर पहरा: आज के पत्रकार और लेखक किस ओर जा रहे हैं?
लेखकों और पत्रकारों का समाज में हमेशा एक विशेष स्थान रहा है। वे न केवल समय के साक्षी होते हैं, बल्कि भविष्य की दिशा भी तय करने में भूमिका निभाते हैं। कभी वे सत्ता की निगरानी करते थे, समाज की चेतना जगाते थे और जनहित की बुलंद आवाज़ बनते थे। लेकिन आज, जब अधिकतर लेखक और पत्रकार सत्ता के चरणों में समर्पण करते दिखते हैं, तो यह सिर्फ चिंता का नहीं, बल्कि लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
1. कॉरपोरेट और सत्ता का गठजोड़:
आज मीडिया संस्थान स्वतंत्र नहीं, बल्कि बड़े कॉरपोरेट समूहों के नियंत्रण में हैं, जिनके सत्ता से प्रत्यक्ष आर्थिक संबंध होते हैं। विज्ञापन, टैक्स छूट और अन्य रियायतों ने पत्रकारिता की रीढ़ तोड़ दी है। अब कलम सत्ता के खिलाफ नहीं, उसके इशारे पर चलती है।
2. रोज़गार और डर की पत्रकारिता:
पत्रकारिता अब सुरक्षित पेशा नहीं रही। सत्ता विरोधी रुख रखने वाले पत्रकारों को नौकरी से निकाल देना, ब्लैकलिस्ट करना या झूठे मुकदमे लाद देना आम बात हो गई है। ऐसे माहौल में पत्रकारों को जीविका और विचारधारा में से एक को चुनना पड़ता है।
3. सोशल मीडिया की भीड़ और भीतरी सेंसरशिप:
आज ट्रोल आर्मी और आईटी सेल के ज़रिए किसी भी असहमति को ‘देशद्रोह’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ या ‘नक्सली’ ठहराना आसान हो गया है। इस डर ने एक नई सेंसरशिप को जन्म दिया है—आत्म-सेंसरशिप। यह वह स्थिति है जहां पत्रकार अपने विचारों को खुद censored करने लगते हैं, अपनी आत्मा की हत्या करने लगते हैं।
4. पुरस्कारों की राजनीति:
लेखकों और पत्रकारों को पुरस्कार, सम्मान, और सरकारी मंचों पर स्थान देकर सत्ता अपने पक्ष में करती है। कुछ बुद्धिजीवी इसे ‘करियर’ समझते हैं, और ‘सत्य’ को सत्ता के दरबार में गिरवी रख देते हैं।
5. लोकतांत्रिक संस्थाओं की चुप्पी:
जब न्यायपालिका, चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं कमजोर होती हैं, तब पत्रकार अकेले पड़ जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में सत्ता के साथ चलना उन्हें ‘सुरक्षित’ विकल्प लगता है।
6. पाठकों की रुचि में गिरावट:
आज गंभीर पत्रकारिता की जगह सनसनी, भावुकता और भ्रामक सूचनाओं ने ले ली है। जब पाठक ही गंभीर लेखन से मुंह मोड़ ले, तो लेखक और पत्रकार या तो चुप होते हैं या फिर बिकते हैं।
7. जातिवाद: एक नैतिक पतन:
जातिवादी मानसिकता न सिर्फ सामाजिक अन्याय का कारण है, बल्कि यह मानवीय चेतना का ह्रास भी है। यह वह विकृति है जो किसी व्यक्ति को जन्म, जाति या रंग के आधार पर आंकती है, न कि उसकी नैतिकता और कर्म के आधार पर। इतिहास गवाह है कि जातिवाद और नस्लवाद से कभी कोई समाज नहीं उन्नत हुआ। जो समाज जन्म से श्रेष्ठता तय करता है, वह अंततः पतन का शिकार होता है।
वर्तमान का संकट: कलम या चुप्पी?
आज का लेखक और पत्रकार एक गहरी दुविधा में है—क्या वह अपने विचारों की कीमत पर नौकरी बचाए, या सत्य कहने की कीमत पर सब कुछ गंवाए? जब लोकतंत्र की नींव दरकने लगती है, तो लेखनी की धार भी कुंद हो जाती है।
सत्ता की गोद में बैठा पत्रकार समाज को आईना नहीं दिखा सकता, और जो लेखक व्यवस्था की चुप्पी को शब्दों में पिरोने से डरता है, वह सिर्फ एक कुर्सी का दावेदार रह जाता है। आज जब हक़ की बात करने वाला आतंकवादी कहा जाता है, और अन्याय के खिलाफ खड़ा होने वाला ‘विकास विरोधी’ ठहराया जाता है, तब समझिए—अंधेरा गहराता जा रहा है।
यह समय है उठने का, बोलने का, और लिखने का; क्योंकि जब कलम डरने लगे, तब समाज मरने लगता है।

Author: SPP BHARAT NEWS






