
औरत: एक अस्तित्व, एक आंदोलन — एक सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पुनर्पाठ
समाजशास्त्र का एक बुनियादी सिद्धांत है: जो वर्ग हाशिये पर होता है, वही परिवर्तन की सबसे बड़ी संभावनाओं को अपने भीतर छिपाए होता है। औरत — वह वर्ग, जिसे सदियों तक “संस्कृति”, “धर्म”, “मर्यादा” और “सभ्यता” के नाम पर नियंत्रित किया गया — आज उसी समाज में विमर्श की धुरी बन चुकी है। लेकिन यह परिवर्तन आकस्मिक नहीं, बल्कि एक सतत संघर्ष का परिणाम है, जिसे सामाजिक-आर्थिक ढाँचों, राजनीतिक विमर्शों और वैज्ञानिक प्रगति ने मिलकर संभव किया।
जब हम कर्नल सोफिया कुरैशी की बात करते हैं, तो यह केवल एक व्यक्ति की उपलब्धि नहीं होती, बल्कि यह एक संरचना के ध्वस्त होने की घोषणा है — वह संरचना जिसने स्त्री को केवल घर की शोभा, सेवा और त्याग का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया। उनकी सफलता, इस मिथक के विरुद्ध वैज्ञानिक और सैनिक अनुशासन के भीतर औरत की निर्णायक उपस्थिति का प्रमाण है। लेकिन इससे पहले कि हम इसे महज “प्रेरक कथा” मानकर आगे बढ़ जाएँ, यह आवश्यक है कि हम इस उपलब्धि को एक व्यापक ऐतिहासिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रखें।
धर्म और पितृसत्ता: एक साझा अनुबंध
भारतीय समाज की सांस्कृतिक बनावट में स्त्री को केंद्र में रखकर भी किनारे पर रखने की परंपरा रही है। धर्मग्रंथों से लेकर आधुनिक मीडिया तक, स्त्री को या तो देवी बनाकर पूजित किया गया या फिर नियंत्रित कर त्याग की मूर्ति बना दिया गया। “सती”, “पार्वती”, “सीता” — सबका मूल संदेश यही था कि स्त्री की सर्वोच्चता उसकी निष्क्रियता और नम्रता में है। और यह विचारधारा, चाहे कितनी भी परिष्कृत लगती हो, वस्तुतः सत्ता-संरचना का पितृसत्तात्मक औजार रही है।
विज्ञान और स्त्री: शृंखला का टूटना
लेकिन जब विज्ञान ने अपने दरवाज़े खोले, तो उसने स्त्री को केवल रसोई से बाहर ही नहीं निकाला, बल्कि उसे अपने जीवन और देह पर अधिकार भी सौंपा। यह कोई संयोग नहीं कि आधुनिक स्त्री आंदोलन की जड़ें शिक्षा और वैज्ञानिक सोच से जुड़ी हुई हैं। सावित्रीबाई फुले की पहल, आनंदीबाई जोशी की डॉक्टरी, मैरी क्यूरी की खोज — ये सब प्रथमदृष्टया व्यक्तिगत उपलब्धियाँ लगती हैं, पर इनमें वैज्ञानिक चेतना के साथ स्त्री अस्मिता के उभार की स्पष्ट रेखा दिखती है।
राजनीति में स्त्री: उपस्थिति या प्रतिनिधित्व?
राजनीति में स्त्री की उपस्थिति कई बार केवल प्रतीक बनकर रह जाती है। ‘आरक्षण’ के नाम पर सत्ता का एक सीमित टुकड़ा दिया जाता है, लेकिन उसे निर्णय की मुख्यधारा से अलग रखा जाता है। इंदिरा गांधी की सत्ता, ममता बनर्जी की मुखरता, स्मृति ईरानी का सत्ता-प्रयोग — ये उदाहरण अपवाद हैं, सामान्य नहीं। कर्नल सोफिया कुरैशी जैसे उदाहरण इस व्यवस्था में द्वार खोलने का कार्य करते हैं, लेकिन यह प्रश्न बना रहता है कि क्या वे परिवर्तन के वाहक बन पा रही हैं, या केवल प्रेरक कथाओं तक सीमित कर दी जा रही हैं?
आर्थिक-सामाजिक ढाँचा और ‘दृश्यता’ का विमर्श:
आज शहरी क्षेत्रों में शिक्षित महिलाएँ स्टार्टअप, कॉर्पोरेट, विज्ञान और रक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में दिखती हैं। लेकिन समाजशास्त्र का दूसरा पहलू यह भी पूछता है कि दृश्यता और प्रतिनिधित्व में क्या अंतर है? गाँव की स्त्री जो खेत में काम करती है, घरेलू नौकरानी जो अर्द्धशिक्षित है, या वह मजदूर औरत जो निर्माणाधीन भवनों पर ईंट उठाती है — उनकी स्थिति में क्या ठोस बदलाव हुआ है? टेक्नोलॉजी ने उन्हें आवाज़ तो दी, पर क्या वह आवाज़ अब भी सुनाई देती है?
संस्कृति, विज्ञान और स्त्री: एक नयी त्रयी
आज भारतीय स्त्री एक ऐसे चौराहे पर खड़ी है जहाँ संस्कृति उसे देवी बनाना चाहती है, समाज उसे मर्यादा में रखना चाहता है, और विज्ञान उसे मुक्त कर चुका है। इस द्वंद्व के बीच सोफिया कुरैशी जैसी स्त्रियाँ विकल्प नहीं, उदाहरण हैं — यह बताने के लिए कि स्त्री अब न विमर्श का विषय है, न सहानुभूति की पात्र, बल्कि वह इतिहास की सक्रिय रचयिता है।
आज आवश्यकता इस बात की नहीं कि हम इन स्त्रियों को तालियों से नवाज़ें, बल्कि यह सुनिश्चित करें कि सामाजिक नीति निर्माण, आर्थिक योजनाओं और राजनीतिक विमर्श में उनका स्थान निर्णायक हो — महज़ प्रतीकात्मक नहीं।
और इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा योगदान होगा उस नारीवादी विज्ञानवादी सोच का, जो कहती है — “औरत को कोई आज़ादी नहीं देता, वह उसे अर्जित करती है — और जब अर्जित करती है, तो वह किसी पुरुष की छाया में नहीं, अपनी रोशनी में चमकती है।”

Author: SPP BHARAT NEWS
