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ट्रंप की ‘शांति कूटनीति’ और मध्य-पूर्व: प्रचार की आड़ में सत्ता का खेल

ट्रंप की ‘शांति कूटनीति’ और मध्य-पूर्व: प्रचार की आड़ में सत्ता का खेल

“जब कूटनीति का आधार आत्म-प्रचार हो और शांति का दावा केवल सुर्खियां बटोरने का साधन, तब स्थायी शांति एक दूर का सपना बनकर रह जाता है।”

डोनाल्ड ट्रंप की हालिया मध्य-पूर्व शांति घोषणाएं, विशेष रूप से ईरान और इज़रायल के बीच युद्धविराम की बात, वैश्विक कूटनीति में एक और नाटकीय अध्याय हैं। ये दावे न केवल उनकी व्यक्तिगत छवि को चमकाने की कोशिश को उजागर करते हैं, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि 21वीं सदी की सत्ता राजनीति प्रचार के आवरण में कैसे छिपती है। यह लेख ट्रंप की मध्य-पूर्व नीति, उनकी शांति घोषणाओं की सच्चाई, और इसके पीछे के भू-राजनीतिक निहितार्थों का विश्लेषण करता है।

ट्रंप की मध्य-पूर्व नीति: विरोधाभासों का इतिहास

ट्रंप का मध्य-पूर्व के प्रति रवैया हमेशा विवादास्पद रहा है। उनके राष्ट्रपति कार्यकाल (2017-2021) में लिए गए कुछ निर्णयों ने क्षेत्र में तनाव को बढ़ाया:

  • ईरान न्यूक्लियर डील (JCPOA) से वापसी: 2018 में अमेरिका का इस समझौते से एकतरफा हटना ईरान के साथ तनाव का प्रमुख कारण बना।
  • क़ासिम सुलेमानी की हत्या: 2020 में ईरानी कमांडर की ड्रोन हमले में हत्या ने क्षेत्रीय असंतुलन को और गहराया।
  • येरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता: इस कदम ने अरब देशों और फ़लस्तीनियों में असंतोष को जन्म दिया।

हालांकि ट्रंप ने अब्राहम समझौते जैसे प्रयासों को अपनी उपलब्धि बताया, लेकिन उनकी नीतियां अक्सर इज़रायल-समर्थक और एकतरफा रही हैं, जिसने मध्य-पूर्व में स्थायी शांति की संभावनाओं को कमजोर किया।

शांति घोषणा: वास्तविकता या प्रचार?

हाल की X पोस्ट्स में ट्रंप ने दावा किया कि ईरान और इज़रायल उनके पास शांति की गुहार लेकर आए। यह कथन न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण है, बल्कि यह संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और अरब लीग जैसे कूटनीतिक चैनलों की भूमिका को नजरअंदाज करता है। यह दावा उनकी पुरानी शैली को दर्शाता है, जिसमें वे स्वयं को “शांति के रचयिता” के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

ट्रंप की यह रणनीति भारत-पाकिस्तान मध्यस्थता के उनके पहले के दावों से मिलती-जुलती है। 2019 में, उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता की पेशकश की थी, जिसे भारत ने स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया। इसी तरह, ईरान और इज़रायल ने उनकी हालिया घोषणा को या तो अनदेखा किया या अस्वीकार किया। इज़रायल की सैन्य तैयारियां और ईरान की प्रतिरोधी बयानबाजी इस बात का सबूत हैं कि ट्रंप का दावा कागजी और प्रचारात्मक है।

ट्रंप के पीछे हटने के तीन कारण

ट्रंप की शांति की बातें युद्ध की आशंकाओं के बीच पीछे हटने का परिणाम हो सकती हैं। इसके पीछे तीन प्रमुख कारक हैं:

  1. वैश्विक जनमत का दबाव: अमेरिका और यूरोप में युद्ध-विरोधी भावनाएं तेज हुई हैं। यूरोपीय देश, जो पहले ही ट्रंप की नीतियों से असहमत रहे हैं, ने इस बार भी उनके एकतरफा कदमों का समर्थन नहीं किया।
  2. होर्मुज जलडमरूमध्य का संकट: ईरान की ओर से इस महत्वपूर्ण जलमार्ग को बंद करने की धमकी ने वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति को खतरे में डाला। ट्रंप के आर्थिक और व्यापारिक हितों ने उन्हें सैन्य टकराव से बचने के लिए मजबूर किया।
  3. सैन्य जोखिम: यदि ईरान ने कतर स्थित अल-उदैद एयरबेस जैसे अमेरिकी ठिकानों पर हमला किया, तो यह अमेरिका की सैन्य अभेद्यता पर सवाल उठा सकता था। ऐसे जोखिमों ने ट्रंप को शांति की भाषा अपनाने के लिए प्रेरित किया।
ईरान की दृढ़ता और क्षेत्रीय प्रतिक्रियाएं

ईरान ने सैन्य और कूटनीतिक दोनों मोर्चों पर स्पष्ट किया है कि वह न तो इज़रायल के हमलों से डरेगा, न ही अमेरिकी दबाव में झुकेगा। ट्रंप की “सत्ता परिवर्तन” की बयानबाजी ने गल्फ देशों, जैसे सऊदी अरब और यूएई, को भी असहज किया, क्योंकि यह संप्रभुता पर सवाल उठाती है।

इसके अलावा, यूरोपीय देशों का समर्थन न मिलना, सऊदी अरब और यूएई की सतर्क चुप्पी, और चीन-रूस का रणनीतिक संतुलन यह दर्शाता है कि ट्रंप का एकतरफा दृष्टिकोण अब व्यवहार्य नहीं है।

शांति की आड़ में राजनीतिक महत्वाकांक्षा

ट्रंप की शांति घोषणाएं संभवतः 2024 के अमेरिकी चुनावों और उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि को सुधारने की रणनीति का हिस्सा हैं। नोबेल शांति पुरस्कार की उनकी महत्वाकांक्षा, अमेरिका में ईवेंजेलिकल ईसाई समुदाय का समर्थन, और इज़रायल-समर्थक लॉबी से जुड़ाव इस दिशा में इशारा करते हैं।

लेकिन इतिहास बताता है कि अमेरिकी हस्तक्षेप—वियतनाम से लेकर इराक और अफगानिस्तान तक—शांति के नाम पर अस्थिरता ही लाया है। ट्रंप की कूटनीति में गहराई की कमी और व्यक्तिगत प्रचार पर जोर इसे और संदिग्ध बनाता है।

क्या यह स्थायी शांति का मार्ग है?

ट्रंप की मध्य-पूर्व कूटनीति प्रचार से अधिक और प्रभाव से कम है। यह शांति के नाम पर एक राजनीतिक नाटक है, जिसमें भू-राजनीतिक जटिलताओं को नजरअंदाज किया गया है। सवाल यह नहीं कि युद्धविराम हुआ या नहीं, बल्कि यह है कि क्या इसे स्थायी शांति कहा जा सकता है, जब ईरान और इज़रायल अभी भी हथियारों की भाषा बोल रहे हैं?

स्थायी शांति के लिए पारदर्शी, समावेशी और क्षेत्रीय सहयोग पर आधारित कूटनीति आवश्यक है। ट्रंप की शैली, जो व्यक्तिगत छवि पर केंद्रित है, इस लक्ष्य से कोसों दूर है। मध्य-पूर्व की जनता को शांति चाहिए, न कि प्रचार का एक और नाटक।

 

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Author: SPP BHARAT NEWS

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