
“रथ में ब्रह्म की गति: श्रीजगन्नाथ यात्रा की आध्यात्मिक व्याख्या”
जब भगवान स्वयं आते हैं भक्तों के बीच
भारत विविध उत्सवों की भूमि है, लेकिन पुरी की रथयात्रा ऐसा अनुपम आयोजन है जहाँ ईश्वर स्वयं मंदिर से बाहर आकर सड़कों पर अपने भक्तों के बीच आते हैं — केवल दर्शन देने नहीं, बल्कि यह स्मरण कराने के लिए कि ईश्वर किसी सीमा में नहीं, समस्त चराचर में व्याप्त हैं।
यह उत्सव केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक दार्शनिक उद्घोषणा है — ब्रह्म स्वयं गतिशील है, और उसकी रथयात्रा में सृष्टि, समाज और साधना तीनों एक साथ यात्रा करते हैं।
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1. श्रीजगन्नाथ: मूर्ति नहीं, मूर्तरहित ब्रह्म का मूर्त स्वरूप
पुरी में विराजमान भगवान जगन्नाथ, भ्राता बलराम और भगिनी सुभद्रा, केवल देवमूर्तियाँ नहीं हैं — वे उपनिषदों में वर्णित निर्गुण ब्रह्म का साकार रूप हैं, जो स्वयं लोक के मध्य प्रकट होते हैं।
कठोपनिषद कहता है:
> “आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च॥”
अर्थात यह शरीर रथ है, आत्मा रथी है, बुद्धि सारथी और मन लगाम है।
यहाँ भगवान रथ पर सवार होकर यही संकेत देते हैं कि यह जीवन, यह देह, और यह यात्रा — सब कुछ ब्रह्म की लीला है।
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2. रथयात्रा का रहस्य: जब भगवान सबके लिए बाहर आते हैं
रथयात्रा का मूल संदेश है — समता और सहजता। भगवान स्वयं उन भक्तों के लिए बाहर आते हैं जो मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते।
स्कन्द पुराण में वर्णन है:
> “दर्शनं चापि योषितां, पतितानां च दुर्लभम्।
तेषां कृते स्वयं याति, श्रीनारायणरूपधृक्॥”
जो नारायण मंदिर में सबको दर्शन नहीं दे पाते, वे स्वयं बाहर आकर स्त्रियों, पतितों, वंचितों के समक्ष प्रकट होते हैं।
यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि धर्म का सामाजिक न्याय है।
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3. रथ: आत्मा की यात्रा के प्रतीक
तीनों रथ केवल वाहनों के नाम नहीं हैं, वे जीवन के तीन गुणों के प्रतीक हैं:
रथ का नाम देवता गुण चक्के सारथि रक्षक
नन्दिघोष जगन्नाथ सत्त्व 16 दारुक गरुड़
तालध्वज बलराम रज 14 मातली वासुदेव
देवदलन सुभद्रा तम 12 अर्जुन जय दुर्गा
इन रथों की यात्रा हमें बताती है कि जीवन ब्रह्म से प्रेरित एक गतिशील साधना है, जो गुणों से संचालित होती है।
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4. रथ को खींचना: जब भक्त स्वयं रथ के रथी बनते हैं
हज़ारों भक्त जब रथ की रस्सी खींचते हैं, तो वह केवल उत्सव नहीं, एक सामूहिक साधना होती है।
रस्सी को ‘दर्शन दण्डा’ कहा जाता है — यह दर्शाता है कि ईश्वर तक पहुंचने के लिए प्रयत्न आवश्यक है।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:
> “मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।” (गीता 4.11)
“जो जिस भाव से मेरी ओर आता है, मैं उसी भाव से उसे प्राप्त होता हूँ।”
रथ खींचना वास्तव में ईश्वर को अपने भीतर खींचना है।
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5. गुंडिचा यात्रा: आत्मा की प्रकृति की ओर वापसी
जगन्नाथ जी रथयात्रा के दौरान गुंडिचा मंदिर (जो देवी लक्ष्मी का मायका माना जाता है) जाते हैं और वहाँ 9 दिनों तक निवास करते हैं।
श्रीमंदिर = परमधाम
गुंडिचा = प्रकृति / शरीर
यह यात्रा आत्मा के जन्म से मृत्यु और पुनः ब्रह्म में विलय तक की चेतना को दर्शाती है।
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6. श्रीजगन्नाथ: सनातन समन्वय का प्रतीक
श्रीजगन्नाथ की मूर्ति वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध और आदिवासी परंपराओं का संगम है।
उनकी आँखें ही उनके ब्रह्मस्वरूप की घोषणा करती हैं — वे सर्वद्रष्टा हैं, लेकिन निर्लिप्त।
वे रूप से परे हैं — और रूप में ही प्रकट हैं।
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7. जब भगवान स्वयं यात्रा करते हैं, तो भक्त कैसे स्थिर रह सकते हैं?
रथयात्रा हमें स्मरण कराती है कि धर्म स्थिर नहीं, गतिशील है।
यह केवल एक दिन का उत्सव नहीं, जीवन का मार्गदर्शन है।
श्रीमद्भागवत कहता है:
> “एतावान् साङ्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया।
जन्मलाभः परः पुंसां अन्ते नारायणस्मृतिः॥” (2.1.6)
जीवन की सिद्धि है — अंत समय में नारायण का स्मरण।
रथयात्रा वह स्मरण है — एक दिन के लिए नहीं, जीवन भर के लिए।
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8. श्रीहरि की स्तुति (भावगान):
> वासुदेव जस रथ के संगी, हृषीकेश गोविंद अभंगी।
गरुड़ध्वज मधुसूदन सोई, सदा नमन मोरे मन जोई॥
पीतांबर तन सुंदर साजा, कमल नयन मन मोहन राजा।
चतुरभुज शंख चक्र गदा धारी, नमन करूँ हरि श्रीमन प्यारी॥
माखनचोर ग्वालिन भूषण, व्रजनायक लीलानंदन।
गोविंद, गोपाल, कृपा सागर, नमन करूँ मैं श्याम गिरिधर॥
यशोदा तनु लालन प्यारा, शूर सुत नंदन सुखसारा।
राधा-प्रिय व्रजमंडल नायक, भक्त-वत्सल हरि सुखदायक॥
वेणु वादन मधुर सुनाई, श्याम तनू लीला सुखदाई।
गोप-गोपियन गुन गावत, नमन करूँ प्रभु जनमन भावत॥
कंस चाणूर नाशन करई, कुंसपुरी सुख लीला भरई।
गोकुलनाथ करुणा सागर, भक्तन के तुम पालन कारगर॥
मुरलीधर व्रजरसिक बिहारी, गोविंद रूप मनहुं बनवारी
तुम बिन मोहि मोक्ष न भावा, जनारदन मोरे मन भावा॥
कृष्ण-कृष्ण योगीश्वरो भारी, रक्षक भक्तन सुखसंवारी।
नाथ तुम्हहि नित नमन हमारो, हरि न दूजो आधार हमारो॥

Author: SPP BHARAT NEWS
