
गिरवी रखी गई बच्चियाँ: जब समाज कर्ज़ में डूबा और मानवता दिवालिया हो गई
🔴 “जिस देश में देवियों की पूजा होती है, उसी देश में बेटियाँ कर्ज के बदले गिरवी रखी जा रही हैं।”
🔹 एक असहज लेकिन सच्चा सवाल
क्या आपने कभी सुना है कि किसी मासूम बच्ची को ‘लीज पर’ दिया गया हो?
यह कोई कानूनी अनुबंध नहीं — बल्कि समाज की उस अंधेरी सच्चाई का हिस्सा है, जहाँ गरीबी, पितृसत्ता, और सरकारी विफलता मिलकर बचपन की नीलामी करते हैं।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारों के बीच भारत के कई इलाकों में अब भी बच्चियाँ साहूकारों के हाथों कर्ज के बदले गिरवी रखी जाती हैं।
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🔹 ‘लीज पर बेटियाँ’ — परंपरा नहीं, पाप का चक्र
यह कोई औपचारिक प्रक्रिया नहीं होती। यह एक मौन समझौता होता है — जिसमें साहूकार, दलाल और बेबस अभिभावक शामिल होते हैं।
3 से 14 साल तक की बच्चियाँ घरेलू काम, होटल सेवा या कभी-कभी यौन शोषण के लिए महानगरों में भेज दी जाती हैं।
दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों में ये बच्चियाँ गुमनाम हो जाती हैं, और तलाशना लगभग असंभव होता है।
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🔹 समाजशास्त्रीय विश्लेषण: यह क्यों हो रहा है?
1️⃣ पितृसत्ता और बेटियों को ‘बोझ’ मानने की मानसिकता
कई परिवारों में बेटियाँ अब भी ‘खर्च’ मानी जाती हैं — संकट में पहला ‘समाधान’ वही होती हैं।
2️⃣ कर्ज़ में डूबी माताएँ, मजबूरी में चुप
यह निर्णय मजबूरी में लिया जाता है। माँ-बाप की चुप्पी सहमति नहीं, बल्कि विकल्पहीनता की व्यथा है।
3️⃣ सामाजिक वैधता — जब गाँव कहता है “ऐसा सब करते हैं”
“साहूकार अच्छा है”, “काम का अनुभव होगा” — ऐसे बहानों से इस अमानवीयता को एक सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है।
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🔹 सरकार की चुप्पी — उदासीनता या भागीदारी?
‘बेटी बचाओ’ योजना ज़मीनी स्तर पर सिर्फ बैनर और भाषणों तक सीमित है।
NCRB के मुताबिक, 2022 में 85,797 बच्चे लापता हुए — जिनमें 65% लड़कियाँ थीं।
पुनर्प्राप्ति दर बेहद कम है, और कई मामलों में सरकारी अधिकारी स्वयं दलालों से मिले होते हैं।
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🔹 मानव तस्करी का अदृश्य नेटवर्क: एक सुरक्षित व्यवस्था
सौदे मौखिक होते हैं — कोई सबूत नहीं।
बच्चियाँ गाँव से शहर तक कई चरणों में भेजी जाती हैं — ट्रैक करना मुश्किल।
NGO या पुलिस की रेड के दौरान ही पता चलता है कि दो साल पहले झारखंड से भेजी गई बच्ची, आज दिल्ली के किसी घर में ‘नौकरी’ कर रही है।
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🔹 क्या है समाधान? — नीति, जागरूकता और जवाबदेही
✅ ब्लॉक स्तर पर स्वतंत्र चाइल्ड वेलफेयर निगरानी समिति अनिवार्य हो।
✅ CBI/NHRC के अधीन विशेष जांच इकाई बनाई जाए।
✅ ग्राम पंचायतों से मासिक रिपोर्टिंग कराई जाए: कितनी बच्चियाँ स्कूल छोड़ चुकी हैं, कितनी बाहर भेजी गईं।
✅ मीडिया को पीड़िता के दृष्टिकोण से रिपोर्टिंग करनी चाहिए, न कि सनसनी के लिए।
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🔹 भारत की आत्मा का प्रश्न: हम कहाँ खड़े हैं?
यह केवल कानून का सवाल नहीं है — यह हमारी संवेदनशीलता, संस्कृति और मौन की दोषी चुप्पी का प्रश्न है।
> “जिस देश की बेटियाँ गिरवी रखी जा रही हों, वहाँ डिजिटल इंडिया कोई गर्व नहीं, एक विडंबना है।”
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🔻 अंत में… एक सिसकी जो अब भी सुनाई नहीं देती
यदि यह लेख आपको विचलित करता है, तो जानिए —
वह बच्ची अब भी उसी अंधेरे में है,
क्योंकि उसकी सिसकी अब तक सिर्फ हवा से टकराई है — समाज अब भी मौन है।

Author: SPP BHARAT NEWS
