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सनातन धर्म में जीव कल्याण: आध्यात्मिक एवं धार्मिक व्याख्या

सनातन धर्म में जीव कल्याण: आध्यात्मिक एवं धार्मिक व्याख्या

सनातन धर्म केवल कर्मकांडों की श्रृंखला नहीं, अपितु एक समग्र जीवन-दर्शन है जो आत्मा के उत्थान, सामाजिक समरसता और वैश्विक करुणा की ओर मार्ग प्रशस्त करता है। इसमें “जीव कल्याण” न केवल एक नैतिक मूल्य है, बल्कि आध्यात्मिक यात्रा का अनिवार्य सोपान भी है। यह दर्शन इस विश्वास पर आधारित है कि सभी जीवों में एक ही दिव्य चेतना का अंश विद्यमान है।

1. ब्रह्म और आत्मा की एकता: जीवों में दिव्यता की अनुभूति

उपनिषदों में वर्णित महावाक्य सनातन धर्म की जीवमात्र के प्रति करुणा को आध्यात्मिक आधार प्रदान करते हैं:

“सर्वं खल्विदं ब्रह्म” (छान्दोग्य उपनिषद् 3.14.1) — “यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्मस्वरूप है।”

“अहं ब्रह्मास्मि” (बृहदारण्यक उपनिषद् 1.4.10) — “मैं ब्रह्म हूँ।”

“तत्त्वमसि” (छान्दोग्य उपनिषद् 6.8.7) — “वह तू है।”

इन वाक्यों से स्पष्ट होता है कि हर जीव में परम ब्रह्म की ही झलक है। अतः जब हम किसी जीव के कल्याण की बात करते हैं, तो यह स्वयं की चेतना के विस्तार का ही कार्य है। यही दृष्टि अद्वैत भाव, करुणा और अहिंसा का आधार बनती है।

2. कर्म सिद्धांत और पुनर्जन्म: जीव कल्याण की नैतिक अनिवार्यता

भगवद्गीता (4.17) में कहा गया है —
“कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।”

अर्थात्, कर्म की गति अत्यंत गूढ़ है। सनातन धर्म के अनुसार, प्रत्येक कर्म का फल निश्चित होता है, जो कर्ता को ही प्राप्त होता है। यदि कोई जीवों के प्रति हिंसा करता है, तो वह स्वयं उसी पीड़ा का भागी बनता है — चाहे इसी जन्म में या अगली योनियों में।

पुनर्जन्म का सिद्धांत जीवमात्र के प्रति समान दृष्टि को पोषित करता है। आज का मनुष्य कभी पशु रहा हो सकता है और भविष्य में पुनः किसी अन्य योनि में जन्म ले सकता है। यह विचार प्रत्येक जीव के प्रति करुणा और सम्मान की प्रेरणा देता है।

3. अहिंसा: सनातन धर्म का व्यवहारिक धर्म

अहिंसा न केवल योग दर्शन का प्रमुख यम है, बल्कि संपूर्ण सनातन संस्कृति का मूलाधार भी:

“अहिंसा परमो धर्मः” (महाभारत, अनुशासन पर्व 113.6) — अहिंसा ही परम धर्म है।

पतंजलि योगसूत्र (2.30) — “अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।”

यह सिद्धांत न केवल मनुष्य के लिए, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए है। इसीलिए शाकाहार को प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि मांसाहार को हिंसा और पापफल का कारण माना गया है।

4. पंचमहाभूत और प्रकृति पूजा: पर्यावरणीय चेतना

सनातन धर्म केवल जीवों तक सीमित नहीं, बल्कि प्रकृति को भी जीवंत और पूजनीय मानता है:

“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” (अथर्ववेद) — “पृथ्वी मेरी माता है, और मैं उसका पुत्र हूँ।”

पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश — ये पंचमहाभूत दिव्य माने गए हैं।
गंगा, यमुना जैसी नदियाँ, हिमालय, तुलसी, पीपल, गौ, नाग — ये सभी जीव-कल्याण और प्रकृति संतुलन के प्रतीक हैं।

यज्ञ और वैदिक अनुष्ठान प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने के माध्यम हैं। यह सनातन धर्म की पारिस्थितिकीय दृष्टि को स्पष्ट करता है।

5. सेवा और दान: करुणा का कर्मरूप

सेवा और दान जीव कल्याण के व्यावहारिक आयाम हैं:

गीता (18.5) —
“यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।”

अन्नदान, जलदान, गौसेवा, पक्षियों को दाना देना, बेघर जीवों की सहायता — ये सब न केवल पुण्यकर्म हैं, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध और उत्कृष्ट बनाते हैं।
सनातन धर्म में ‘नर सेवा – नारायण सेवा’ के भाव से किया गया हर कार्य जीव कल्याण का ही रूप है।

निष्कर्ष: समष्टि के कल्याण की ओर सनातन दृष्टि

जीव कल्याण सनातन धर्म में कोई वैकल्पिक आदर्श नहीं, बल्कि धर्म, ज्ञान और मोक्ष की यात्रा का अपरिहार्य अंग है।
यह दर्शन सिखाता है कि —
“वसुधैव कुटुम्बकम्” — समस्त सृष्टि एक परिवार है।

जब व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म का अंश मानकर प्रत्येक जीव में उसी चेतना को देखता है, तब वह केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सार्वभौमिक करुणा से युक्त आध्यात्मिक मानव बनता है।

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Author: SPP BHARAT NEWS

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