
महर्षि मनु द्वारा प्रतिपादित मानव-धर्म के दस लक्षण
संकलन : नवीन चंद्र प्रसाद, वरिष्ठ पत्रकार एवं कोआर्डिनेटर – झारखंड
महर्षि मनु ने मानव-धर्म की व्यापक व्याख्या करते हुए उसे दस प्रमुख लक्षणों में व्यक्त किया है—
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
भावार्थ एवं व्याख्या
1. धृति (धैर्य) – परिस्थितियाँ कैसी भी हों, मनुष्य को सदैव संयम और साहस बनाए रखना चाहिए।
2. क्षमा (सहनशीलता) – मान-अपमान, सुख-दुःख और विपरीत परिस्थितियों में मन को संतुलित रखना।
3. दम (मन का संयम) – मन को अधर्म से रोककर धर्ममय विचारों व कर्मों की ओर लगाना।
4. अस्तेय (चोरी न करना) – बिना अनुमति एवं छल-कपट के किसी की वस्तु ग्रहण न करना।
5. शौच (पवित्रता) – शरीर और मन की स्वच्छता बनाए रखना, साथ ही राग-द्वेष, व्यसन, पक्षपात, असत्य आदि दुर्गुणों से दूर रहना।
6. धी (बुद्धि) – ज्ञान और विज्ञान से अपनी बुद्धि का विकास करना।
7. इन्द्रियनिग्रह (इन्द्रियों का नियंत्रण) – ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को अशुभ कार्यों से हटाकर शुभ कार्यों में लगाना।
8. विद्या (सद्ज्ञान) – सभी प्रकार के श्रेष्ठ ज्ञान का अध्ययन, मनन और आचरण द्वारा विकास करना।
9. सत्य (सत्यनिष्ठा) – विचार, वचन और आचरण में यथार्थता और पारदर्शिता रखना।
10. अक्रोध (क्रोध पर नियंत्रण) – क्रोध को रोकना और उसके प्रभाव में आकर अनुचित कार्य न करना।
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मानव-धर्म का सार्वभौमिक स्वरूप
ये दस लक्षण मानव मात्र के सहज और स्वाभाविक धर्म हैं। इन पर किसी भी पंथ या सम्प्रदाय के अनुयायियों को आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि ये गुण व्यक्ति के भीतर मनुष्यत्व का विकास करते हैं।
महर्षि मनु का यह सिद्धांत व्यक्तिगत और सामाजिक—दोनों प्रकार के धर्म को समाहित करता है। इन्हें अपनाकर व्यक्ति पहले अपने व्यक्तिगत जीवन में सर्वांगीण विकास कर सकता है और फिर इन गुणों के आधार पर समाज में सर्वोत्तम योगदान दे सकता है।
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मानवता के अनिवार्य अंग
ये दस लक्षण केवल धार्मिक या नैतिक उपदेश नहीं, बल्कि मानव धर्म की धुरी हैं।
ये विश्व के प्रत्येक स्त्री और पुरुष के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए अपरिहार्य हैं।
इन्हें अपनाना ही सर्वांगीण विकास की सीढ़ी है और सच्ची मानवता का प्रतीक है।
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स्रोत: डॉ. कृष्ण वल्लभ पालीवाल — “इस्लाम, ईसाइयत और हिन्दू धर्म”

Author: SPP BHARAT NEWS
